________________ FII IIATICA NIA II IIIMA ISIe ततः साधुः स पेटायाः पट्टकूलशतावृतम् / उद्घाट्य दर्शयामास तस्य चित्रपटं स्फुटम् तत्र चित्रपटे नारी रूपेणालौकिकेन सः / पश्यन् सुरवधूबुद्ध्या प्रणन्तुं प्रगुणोऽभवत् तं तथास्थितमुर्वीशं निवार्य स वणिग्वरः / ऊचे देवेन देवीयं तत्त्वमस्या निशम्यताम् इतो गत्वा दशाणेषु विदिशासन्निधौ मम / आवासितस्य कान्तारे सायं भृत्यैर्निवेदितम् यदत्राश्वोऽस्ति गुल्मौघलनवल्गानियत्रितः / निश्चेष्टः पतितः पृथ्व्यामश्ववारश्च सन्निधौ समानीय सहावं तं ततोऽहं पटमण्डपे / उपचारपरै त्यः स्वस्थं कारितवान् द्रुतम् तस्यानुपदिकं सैन्यं प्रातर्विष्वक् समाययौ / राज्ञो विजयसेनस्य स हि राज्यधरः सुतः अश्वेनापहृतः प्राप केवलं तादृशीं दशाम् / सुवर्णबाहुरित्याख्यां स विमति महाभुजः दशार्णपतिपुत्रेण तेन नीतः सहैव हि / प्रविष्टोऽस्मि पुरी देव ! बद्धध्वजपटावृताम् स प्रणम्य पितुः पादौ निषण्णः सन्निधौ सदि / अश्वापहरणोदन्तं पृच्छ्यमाणोऽवदद् मुदा अपहृत्य तुरङ्गेण प्रक्षिप्तो निर्जने वने / आरूढ एव निश्चेष्टस्तात ! जातोऽस्म्यहं श्रमात गुल्मौघलनवल्गः सन् क्वापि तस्थौ स्वयं हरिः। निश्चेष्टः पतितः पृथ्व्यामहं विटपघट्टनात तत्र मे नष्टचेष्टस्य सिंहव्याघ्राकुले वने / नन्वेष सन्निधौ साधुर्दैवादावासितोऽभवत् यद्यकारणबन्धुर्मे न तदा परिपालनम् / अकरिष्यदयं साधुस्ततो मे जीवितं कुतः // 17 // // 18 // // 19 // // 20 // // 21 // // 22 // // 23 // // 24 // // 25 // // 26 // // 27 // // 28 // // 29 // // 30 // ||SHIARI NIRMISSI AIISTile