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________________ Inel आवश्यक निर्युक्तेरव क्षेपाः चूर्णिः // 434 // - "क्षेत्रस्य नभसः व्यञ्जनपर्यापन्नं, तथापीक्षुकरणाघस्त्यव, इह व्यञ्जनशब्देन पुद्गलास्तत्सम्बन्धात्पयायः कथंचित् प्रागव- | करणनिस्थापरित्यागेनावस्थान्तरापत्तिस्तमापन्नं यदा विवक्ष्यते तदा पर्यायद्वारेण क्षेत्रकरणमस्ति, यथा इक्षुक्षेत्रकरणमित्यादि॥१०३०॥ कालेवि नत्थि करणं तहावि पुण वंजणप्पमाणेणं / बवबालवाइकरणेहिंऽणेगहा होइ ववहारो॥१०३१॥ / | नि० गा. व्यञ्जनप्रमाणेन स्यादिति शेषः, इह व्यञ्जनशब्देन वर्त्तनाद्यभिव्यञ्जकत्वात् द्रव्याणि गृह्यन्ते, तत्प्रमाणेन तद् 1031 // बलेन, यथाऽत्र चतुर्मासकं कृतं, समयादिकालापेक्षायामपि व्यवहारनयादस्ति कालकरणं, आह च-बवादिकरणैरनेकधा भवति व्यवहारः बवं च बालवं चेव, कोलवं तीइलो य णं / गरो हि वणियं चेव, विट्ठी भवइ सत्तमा // 1 // - सउणि चउप्पय णागं किंछुग्धं च करणं थिरं चउहा / बहुलचउद्दसिरत्ती सउणी सेसं तियं कमसो // 2 // पक्खतिहओ दुगुणिआ दुरूवहीणा य सुक्तपक्खंमि / सत्तहिए देवसियं तं चेव रूवाधियं रत्तिं // 3 // किण्हनिसि तइय दसमी सत्तमी चाउद्दसी य अह विट्ठी। सुक्कचउत्थेकारसि निसि अट्टमि पुन्निमा य दिवा॥४॥ सुद्धस्स पडिवयनिसि पंचमिदिण अट्ठमीए रत्तिं तु। दिवसस्स बारसी पुन्निमा य रत्तिं बवं होइ // 5 // बहुलस्स चउत्थीए दिवा य तह सत्तमीइ रत्तिमि / एक्कारसीय उ दिवा बवकरणं होइ नायव्वं // 6 // PC // 434 // . एतानि सप्त चलानि // 1 // इह भावना-कृष्णचतुर्दशीरात्रौ शकुनिः, अमावास्यायां [दिवा] चतुष्पदं, रात्रौ नागं, I प्रतिपदि दिवा किंस्तुघ्नं, प्रतिपन्निशादी बवादीनि // 2 // एतेषां ज्ञानोपायः यथा शुद्धचतुर्थी द्विगुणिता अष्ट, द्विरूप
SR No.600447
Book TitleAvashyak Sutra Niryukterev Churni Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay
PublisherDevchandra Lalbhai Jain Pustakoddhar Fund
Publication Year1965
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_aavashyak
File Size37 MB
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