________________ आवश्यक निर्युक्तेरव सामायिकनियुक्तिः चूर्णिः // 428 // सुगमौ / अत्रान्तरे सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिः, आह च अक्खलिअसंहिआई वक्खाणचउक्कए दरिसिअंमि। सुत्तफासिअनिजुत्तिवित्थरत्थो इमो होइ॥ 1028 // अस्खलितादौ सूत्र उच्चरिते तथा संहितादौ व्याख्यानचतुष्टये दर्शिते सति सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिविस्तरार्थोऽयं // 1028 // करणे भए अ अंते सामाईअ सव्वैए अ बजे अ।जोगे पचखाणे जावजीवाइ तिविहेण // 1029 // करणमित्यादि पदानि, पदार्थ तु भाष्यकृद्वक्ष्यति // 1029 // करणनिक्षेपमाहनामं ठवणा दविए खित्ते काले तहेव भावे अ / एसो खलु करणस्सा निक्खेवो छव्विहो होह // 152 // (भा०)| द्रव्यकरणमाहजाणगभविअइरित्तं सन्ना नोसन्नओ भवे करणं / सन्ना कडकरणाई नोसन्ना वीससपओगे // 153 // (भा०) नोआगमतो ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं द्रव्यकरणं द्विधा-संज्ञाकरणं नोसंज्ञाकरणं, [संज्ञाकरणं] कट करणादि, अयमर्थः-कटादिनिर्वर्त्तकपाइलकादीनां करणमिति संज्ञा क्वचिद्देशे रूढा अतस्ता रूढिमाश्रित्य संज्ञाविशिष्टकरणं संज्ञाकरणमित्युच्यते, नोसंज्ञाद्रव्यकरणं द्वेधा-प्रयोगतो [विश्रसातश्च] // 153 // विश्रसाकरणं द्विधा, अत आहवीससकरणमणाई धम्माईण परपच्चयाजो (यजो)गा। साई चक्खुप्फासिअमन्भाइमचक्खुमणुमाई॥१५४॥(भा०) विश्रसा-स्वभावस्ततः करणं विश्रसाकरणमनादि धर्माधर्माकाशास्तिकायानामन्योन्यसमाधानं करणमिति गम्यते। आहकरणशब्दोऽपूर्वप्रादुर्भावे, ततः करणं चानादि चेति विरुद्धं, न, परप्रत्यययोगात्-परवस्तुप्रत्यययोगा(यभावात् धर्मादीनां तथा करणनि क्षेपाः नि० गा. 1028-29 भा० गा. 152-154 // 428 //