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________________ आवश्यकनियुक्तेरव चूर्णिः | नमस्कार| नियुक्ती सिद्धनिक्षेपाः | नि० गा. 928-932 // 398 // कर्मसिद्धः-कर्मणि निष्ठां गतः, एवं शिल्पसिद्धादयः // 927 // नामस्थापने सुगमे द्रव्यसिद्धो निष्पन्न ओदनः सिद्ध इत्युच्यते, कर्मसिद्धादीनाह कम्मं जमणायरिओवएसयं सिप्पमन्नहाभिहिअं। किसिवाणिज्जाईयं घडलोहाराइभेअंच // 928 // कर्म यदनाचार्योपदेशजं सातिशयमनन्यसाधारणं गृह्यते, शिल्पमन्यथाभिहितं, यदाचार्योपदेशजं ग्रन्थनिबन्धाद्वोपजायते सातिशयं कर्मापि तच्छिल्पं, भारवहनकृषिवाणिज्यादि कर्म, घटकारलोहकारादिभेदं च शिल्पं // 928 // जो सव्वकम्मकुसलो जो वा जत्थ सुपरिनिहिओ होई। सज्झगिरिसिद्धओविव स कम्मसिद्धत्ति विन्नेओ॥९२९॥ यो वा यत्र कर्मणि सुपरिनिष्ठितः स्यादेकस्मिन्नपि सह्यगिरिसिद्धिक इव स कर्मसिद्धः, कुङ्क(कोकण)देशे सह्यगिरिः तस्योपर्येकं दुर्ग तद्वासिनां पण्यानि तत उत्तरायतामारोहयतां च राज्ञा मार्गासंवलनं दत्तं, इतः सैन्धवो मुनिर्दीक्षापराजितो | भारवाहकमुख्यो जातः, तं मुनेर्मार्ग ददतं दृष्ट्वा अन्य राज्ञो न्यवेदि, मुनिस्वरूपकथनपूर्वकं राजा प्रत्यबोधि, स्वयं च निष्क्रान्तः, अयं कर्मसिद्धः // 929 // जो सव्वसिप्पकुसलो जो वा जत्थ सुपरिनिहिओ होइ / कोकासवडईविव साइसओ सिप्पसिद्धो सो॥९३०॥ कोकाशवार्द्धित( कि)वत् सातिशयः, कोकाश आकाशगामिकपोतगरुडादिविधाता // 930 // इत्थी विजाभिहिया पुरिसो मंतुत्ति तब्विसेसोयं / विजा ससाहणा वा साहणरहिओ अ मंतुत्ति // 931 // विजाण चक्कवट्टी विजासिद्धो स जस्स वेगावि / सिज्झिज महाविजा विजासिद्धजखउडुव्व // 932 // // 398 //
SR No.600447
Book TitleAvashyak Sutra Niryukterev Churni Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay
PublisherDevchandra Lalbhai Jain Pustakoddhar Fund
Publication Year1965
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_aavashyak
File Size37 MB
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