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________________ W आवश्यकनियुक्तेरवचूर्णिः योगोपयोगशरीरद्वाराणि नि० गा० 820 // 374 // पन्नस्त्वस्त्येव, उपरितनसामायिकद्वयस्यापि प्रतिपद्यमानकः सम्भवति, इतरस्त्वस्त्येव, अवधिज्ञानी सम्यक्त्वश्रुतयोः पूर्वप्रतिपन्न एव न प्रतिपद्यमानकः, देशविरतिं न प्रतिपद्यते, गुणपूर्वकत्वात् तदवाप्तेः, स्यात् पूर्वप्रतिपन्नः, सर्वविरतिं प्रतिपद्यते, पूर्वप्रतिपन्नोऽपि स्यात् , मनःपर्यायज्ञानी देशविरतिरहितस्य त्रयस्य पूर्वप्रतिपन्न एव, [न प्रतिपद्यमानकः], युगपद्वा सह तेन चारित्रं प्रतिपद्यते तीर्थकृत् , [भवस्थ ] केवली पूर्वप्रतिपन्नस्तु सम्यक्त्वचारित्रयोः [न तु प्रतिपद्यमानकः] // 819 // योगोपयोगशरीराण्याहचउरोऽवि तिविहजोगे उवओगदुगंमि चउर पडिवजे / ओरालिए चउक्कं सम्मसुय विउविए भयणा // 820 // 'त्रिविधयोगे' मनोवाक्कायलक्षणे, उपयोगद्वये-साकारानाकारभेदे चत्वारि प्रतिपद्यते, प्राक्प्रतिपन्नस्त्वस्त्येव, ननु 'सबाओ लद्धीओ सागारोवओगोवउत्तस्य' इत्यागमादनाकारोपयोगे सामायिकलब्धिविरोधः?, उच्यते, प्रवर्द्धमानपरिणामजीवविषयत्वात्तस्यागमस्य, अवस्थितौपशमिकपरिणामापेक्षया चानाकारोपयोगे सामायिकलब्धिप्रतिपादनादविरोधः, आह च भाष्यकार:"ऊसरदेशं दड्डेल्लयं च विज्झाइ वणदवो पप्प / इव मिच्छस्स अणुदए उवसमसंमं लहइ जीवो // 1 // " अवस्थितपरिणामता | चाऽस्य-जं मिच्छस्साणुदओ न हायए तेण तस्स परिणामो / जं पुण सयमुवसंतं न वड्डएऽवडिओ तेणं // 2 // " औदारिके शरीरे चतुष्कं द्विधाप्यस्ति, सम्यक्त्वश्रुतयोक्रिये भजना, अयमर्थः-वैक्रियशरीरी सम्यक्त्वश्रुतयोढ़िधापि, उपरितनद्वयस्य प्राक्प्रतिपन्न एव कृतवैक्रियश्चारणश्रावकादिः श्रमणो वा, न प्रतिपद्यमानकः, प्रमत्तत्वात् , आहारकशरीरी देशविरतिवजोनि त्रीण्याश्रित्य प्राक्प्रतिपन्नः, तैजसकार्मणकायेऽपान्तरालगतावाद्यद्वयमाश्रित्य प्राक्प्रतिपन्नः // 820 // संस्थानादित्रयमाह // 374 //
SR No.600447
Book TitleAvashyak Sutra Niryukterev Churni Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay
PublisherDevchandra Lalbhai Jain Pustakoddhar Fund
Publication Year1965
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_aavashyak
File Size37 MB
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