________________ आवश्यकनियुक्तेरव गणधरवक्तव्यता नि० गा० 601-606 // 312 // युक्तिं हृदयं च // 600 // छिण्णंमि संसयंमी जिणेण जरमरण विप्पमुकेणं / सो समणो पब्वइओ पंचहि सह खंडियसएहिं // 601 // 'श्रमणः प्रवजितः' साधुः संवृत्त इत्यर्थः, खण्डिकशतैः खण्डिकाः-छात्राः // 601 // तं पव्वइयं सोउं बितिओ आगच्छई अमरिसेणं / वच्चामि ण आणेमी पराजिणित्ता ण तं समणं // 602 // __व्रजामि, णमिति वाक्यालङ्कारे, आनयामि इन्द्रभूतिमिति गम्यते // 602 // अत्र भाष्यगाथेछलिओ छलाइणा सो मन्ने माइंदजालिओ वावि / को जाणाइ कह वत्तं इत्ताहे वहमाणी से? // 1 // (भा०) सो पक्खंतरमेगंपि जाइ जइ मे तओ मि तस्सेव / सीसत्तं हुन गओ वुत्तुं पत्तो जिणसगासं // 2 // (भा०) छलितश्छलादिना स मद्वन्धुः, मन्येऽयं देवार्यो मायी, इन्द्रजालिको वा, यद्वा को जानानि, कथं वृत्ता (वार्ता) 'इत्ताहे 'त्यादि इतो वर्त्तमानिका से तस्य ज्ञास्यते, स पक्षान्तरं प्रतिज्ञारूपमेकमपि जानाति यदि मे ततोऽहं तस्यैव शिष्यत्वं गतो भवेयं // 2 // आभट्ठो य जिणेणं जाइजरामरणविप्पमुक्केणं / नामेण य गोत्तेण य सव्वण्णू सव्वदरिसीणं // 603 // किं मण्णे अत्थि कम्मं! उदाहु णस्थित्ति संसओ तुज्झ / वेयपयाणय य अत्थं ण याणसी तेसिओ अत्थो॥६०४॥ | छिण्णमि संसयंमी जिणेण जरमरणविप्पमुक्केणं / सो समणो पब्वइओ पंचहि सह खंडियसएहिं // 605 // तं पब्बइए सोउं तइओ आगच्छई जिणसगासं / वच्चामि ण वंदामी बंदित्ता पञ्जुवासामि // 606 //