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________________ आवश्यक नियुक्तेरव चूर्णिः मरीचिवक्तव्यता वन्दनाय भरतगमन // 252 // नि० गा० 422-425 अथ यदुक्तं 'तित्थयरो को इहं भरहे' ? ति, तद्व्याचिख्यासयाऽऽह मूलभाष्यकार:अह भणइ नरवरिंदो ताय! इमीसित्तिआइ परिसाए / अण्णोवि कोऽवि होही भरहे वासंमि तित्थयरो?॥४४॥ अथ भणति नरवरेन्द्रः-तात! अस्या एतावत्याः पर्षदोऽन्योऽपि कश्चिद्भविष्यति तीर्थकरः अस्मिन् भारते वर्षे // 44 // तत्थ मरीईनामा आइपरिव्वायगो उसभनत्ता। सज्झायझाणजुत्तो एगंते झायइ महप्पा // 422 // तत्र भगवतः प्रत्यासन्नभूभागे मरीचिनामा आदौ(आदि)परिव्राजकः प्रवर्तकत्वात् ऋषभनप्ता-पौत्रक इत्यर्थः, स्वाध्याय एव ध्यानं तेन युक्तः एकान्ते ध्यायति महात्मा // 422 // तं दाएइ जिणिंदो एव नरिंदेण पुच्छिओ संतो। धम्मवरचक्कवही अपच्छिमो वीरनामुत्ति // 423 // भरतपृष्टो भगवान् 'त' मरीचिं दर्शयति जिनेन्द्रः, एवं नरवरेण पृष्टः सन् धर्मवरचक्रवर्ती अपश्चिमो वीरनामा भविष्यतीति // 423 // तथा आइगरु दसाराणं तिविढू नामेण पोअणाहिवई / पिअमित्तचकवट्टी मूआइ विदेहवासंमि // 424 // __ आदिकरो दशाराणां त्रिपृष्ठनामा पोतना नाम नगरी तस्या अधिपतिः, तथा प्रियमित्रनामा चक्रवती मूकायां नगर्या विदेहवर्षे-महाविदेहे इति यावत् भविष्यति // 424 // तं वयणं सोऊगं राया अंचियतणूसहसरीरो / अभिवंदिऊण पिअरं मरीइमभिवंदओ जाइ // 425 // तद्वचनं श्रुत्वा राजा अश्चित्तानि तनूरुहाणि-रोमाणि शरीरे यस्य स तथा, अभिवन्द्य पितरं तीर्थकरं मरीचिमभि // 252 //
SR No.600447
Book TitleAvashyak Sutra Niryukterev Churni Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay
PublisherDevchandra Lalbhai Jain Pustakoddhar Fund
Publication Year1965
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_aavashyak
File Size37 MB
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