________________ श्रीभगवत्यई श्रीअभय वृत्तियुतम् भाग-३ // 1616 // 35 शतके उद्देशकः 2-11 सूत्रम् 857-858 प्रथमोसमयावेकेन्द्रिया: रत्ति // 35-8 // 7 पढमअचरमसमयकडजुम्मरएगिदिया णं भंते! कओ उवव०?,जहा बीओ उद्देसओ तहेव निरवसेसं / सेवं भंते! रति जाव विहरइ // ३५-९॥८चरमरसमयकडजुम्मरएगिदिया णं भंते! कओ उवव०?, जहा चउत्थो उद्देसओ तहेव? सेवं भंते सेवं भंते! त्ति ॥३५-१०॥९चरमअचरमसमयकडजुम्मरएगिदियाणंभंते! कओउवव०?,जहा पढमसमयउद्देसओतहेव निरवसेसं। सेवं भंते! 2 जाव विहरति // 35-11 // एवं एए एक्कारस उद्देसगा, पढमो ततिओ पंचमओय सरिसगमा सेसा अट्ट सरिसगमगा, नवरं चउत्थे छठे अट्ठमे दसमे य देवा न उववजंति तेउलेस्सा नत्थि॥सूत्रम् 858 // पढम एगिदियमहाजुम्मसयं सम्मत्तं // 1 // पढमसमयकडजुम्मरएगिदिय त्ति, एकेन्द्रियत्वेनोत्पत्तौ प्रथमः समयो येषांते तथा, तेच ते कृतयुग्मकृतयुग्माश्चेति प्रथमसमय-8 कृतयुग्मकृतयुग्माः, तेच त एकेन्द्रियाश्चेति समासोऽतस्ते सोलसखुत्तोत्ति षोडशकृत्वः- पूर्वोक्तान् षोडश राशिभेदानाश्रित्येत्यर्थः, नाणत्ताई ति पूर्वोक्तस्य विलक्षणत्वस्थानानि, ये पूर्वोक्ता भावास्ते केचित् प्रथमसमयोत्पन्नानां न संभवन्तीतिकृत्वा, तत्रावगाहनाघोद्देशके बादरवनस्पत्यपेक्षया महत्युक्ताऽभूदिह तु प्रथमसमयोत्पन्नत्वेन साऽल्पेति नानात्वम्, एवमन्यान्यपि स्वधियोह्यानीति // 1 // // 857 // पञ्चत्रिंशे शते द्वितीयः॥ 35-2 // * तृतीयोद्देशके तु अपढमसमयकडजुम्मरएगिदिय त्ति, इहाप्रथमः समयो येषामेकेन्द्रियत्वेनोत्पन्नानां व्यादयः समयाः, विग्रहश्च पूर्ववत्, एते च यथा सामान्येनैकेन्द्रियास्तया भवन्तीत्यत एवोक्तं एसो जहा पढमुद्देसो इत्यादीति // 1 // // 35-3 // चतुर्थे तु चरमसमयकडजुम्मरएगिदिय त्ति, इह चरमसमयशब्देनैकेन्द्रियाणां मरणसमयो विवक्षितः स च परभवायुषः प्रथमसमय एव तत्र च वर्तमानाश्चरमसमयाः सङ्ख्यया च कृतयुग्मकृतयुग्मा य एकेन्द्रियास्ते तथा एवं जहा पढमसमयउद्देसओ त्ति यथा प्रथमसमय एकेन्द्रियोद्देशकस्तथा चरमसमयएकेन्द्रियोद्देशकोऽपिवाच्यः, तत्र ह्यौधिकोद्देशकापेक्षया दशनानात्वान्युक्तानीहापि // 1616 //