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________________ श्रीभगवत्यङ्गं श्रीअभय वृत्तियुतम् भाग-३ // 1580 // 30 शतके उद्देशकः 2-11 सूत्रम् 826-828 अनन्तरोत्पनादीनांसम १परंपरोववन्नगाणं भंते! नेरइया किरियावादी एवं जहेव ओहिओ उद्देसओ तहेव परंपरोववन्नएसुवि नेरइयादीओतहेव निरवसेसं भाणियव्वं तहेव तियदंडगसंगहिओ। सेवं भंते! 2 जाव विहरइ ॥सूत्रम् 827 / / 30-3 // 2 एवं एएणं कमेणं जच्चेव बंधिसए उद्देसगाणं परिवाडी सच्चेव इहंपिजाव अचरिमो उद्देसो, नवरं अणंतरा चत्तारिवि एक्कगमगा, परंपरा चत्तारिवि एक्कगमएणं, एवं चरिमावि, अचरिमावि एवं चेव नवरं अलेस्सो केवली अजोगी न भन्नइ, सेसं तहेव / सेवं भंते! त्ति / एए एक्कारसवि उद्देसगा॥सूत्रम् 828 ॥समवसरणसयंसम्मत्तं / / 30 // एवं द्वितीयादय एकादशान्ता उद्देशका व्याख्येयाः, नवरं द्वितीयोद्देशके इमं से लक्खणं ति से भव्यत्वस्येदंलक्षणं क्रियावादी शुक्लपाक्षिकः सम्यग्मिथ्यादृष्टिश्च भव्य एव भवति नाभव्यः, शेषास्तु भव्या अभव्याश्चेति, अलेश्यसम्यग्दृष्टिज्ञान्यवेदाकषाययोगिनां भव्यत्वं प्रसिद्धमेवेति नोक्तमिति // 7 / / / / 826 / / तृतीयोद्देशके तु तियदंडगसंगहिओ त्ति, इह दण्डकत्रयं नैरयिकादिपदेषु-क्रियावाद्यादिप्ररूपणादण्डकः 1 आयुर्बन्धदण्डको 2 भव्याभव्यदण्डक 3 श्चेत्येवमिति // 1 // // 827 // एकादशोद्देशके तु अलेस्सो केवली अजोगी य न भण्णति त्ति अचरमाणामलेश्यत्वादीनामसम्भवादिति // 2 // // 828 / / त्रिंशत्तमशतं वृत्तितः परिसमाप्तम् // 30 // यद्वानहामन्दरमन्थनेन, शास्त्रार्णवादुच्छलितान्यतुच्छम् / भावार्थरत्नानि ममापि दृष्टौ, यातानि ते वृत्तिकृतो जयन्ति // 1 // // इति श्रीमच्चन्द्रकुलनभोनभोमणिश्रीमदभयदेवाचार्यवर्यविहितविवरणयुतं श्रीमद्भगवतीवृत्तौ त्रिंशत्तमं शतकं समाप्तम् // // 1580 //
SR No.600445
Book TitleVyakhyapragnaptisutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyakirtivijay
PublisherShripalnagar Jain Shwetambar Murtipujak Derasar Trust
Publication Year2012
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_bhagwati
File Size38 MB
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