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________________ श्रीभगवत्यङ्ग श्रीअभय. वृत्तियुतम् भाग-३ // 1384 // पृथ्व्याउत्पाद: तिन्निणाणा, तिन्नि अन्नाणा णियमं, ठितीज० अट्ठभागपलिओवमं, उ० पलिओवर्मवाससहस्सअन्भहियं एवं अणुबंधोविकालादे० 24 शतके जह० अट्ठभागपलिओवमं अंतोमुत्तमब्भहियं, उ० पलिओवमं वाससयसहस्से णं बावीसाए वाससहस्सेहिं अब्भहियं एवतियं० उद्देशक: 12 सूत्रम् 703 एवं सेसावि अट्ठ गमगा भाणियव्वा नवरं ठितीं कालादे० जाणेजा // 53 जइ वेमाणियदेवेहितो उरव० किं कप्पोवगवेमाणिय० मनुष्येभ्यः कप्पातीयवेमाणिय०?,गो०! कप्पोवगवेमाणिय० णो कप्पातीतवेमाणिय०,५४जइ कप्पोवगवेमाणिय० किं सोहम्मकप्पोवगवेमाणिय जाव अच्चुयकप्पोवगवेमा०?, गोयमा! सोहम्मकप्पोवगवेमाणिय० ईसाणकप्पोवगवेमाणिय० णो सणंकुमारजावणो अच्चुयकप्पोवगवेमाणिय०, 55 सोहम्मदेवे णं भंते! जे भविए पुढविकाइएसु उवव० ते णं भंते! केवतिया एवं जहा जोइसियस्स गमगो, णवरं ठिती अणुबंधो य ज० पलिओवमं, उ० दो सागरोवमाई कालादे० ज० पलिओवमं अंतोमहुत्तमब्भहियं, उ० दो सागरोवमाइंबावीसाए वाससहस्सेहिं अन्भहियाइं एवतियं कालं, एवं सेसावि अट्ठ गमगा भाणियव्वा, णवरं ठितिं कालादेसं च जाणेज्जा / 56 ईसाणदेवेणं भंते! जे भविए एवं ईसाणदेवेणविणव गमणा भाणि०, नवरं ठिती अणुबंधोज सातिरेगंपलिओवमं, उ० सातिरेगाइंदो सागरोवमाइंसेसंतं चेव / सेवं भंते 2 जाव विहरति ॥सूत्रम् 703 // 24-12 // जई त्यादि, तत्र च एवं जहे त्यादि, यथा ह्यसज्ञिपञ्चेन्द्रियतिरश्चो जघन्यस्थितिकस्य त्रयो गमास्तथैव तस्यापि त्रय औघिका गमा भवन्ति,अजघन्योत्कृष्टस्थितिकत्वात्, संमूर्छिममनुष्याणां न शेषगमषट्कसम्भव इति / / 36 // अथ सज्ञिमनुष्यमधिकृत्याह जइ सन्नी त्यादि, जहेव रयणप्पभाए उववज्जमाणस्स त्ति सज्ञिमनुष्यस्यैवेति प्रक्रमः, नवर मित्यादि, रत्नप्रभायामुत्पित्सोर्हि मनुष्यस्यावगाहना जघन्येनाङ्गलपृथक्त्वमुक्तमिह त्वङ्गलासङ्गयेयभागः, स्थितिश्च जघन्येन मासपृथक्त्वं प्रागुक्तमिह त्वन्तर्मुहूर्त्तमिति, संवेधस्तु नवस्वपि गमेषु यथैव पृथिवीकायिकेषूत्पद्यमानस्य सज्ञिपञ्चेन्द्रियतिरश्चन // 1384 //
SR No.600445
Book TitleVyakhyapragnaptisutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDivyakirtivijay
PublisherShripalnagar Jain Shwetambar Murtipujak Derasar Trust
Publication Year2012
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_bhagwati
File Size38 MB
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