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________________ श्रीसमवाया श्रीअभय० वृत्तियुतम् // 71 // सूत्रम् 22 22 समवायः परिषहादिः दिट्ठिवायस्सणं बावीसं सुत्ताई छिन्नछेयणइयाइंससमयसुत्तपरिवाडीए बावीसं सुत्ताई अछिन्नछेयणइयाइं आजीवियसुत्तपरिवाडीए बावीसं सुत्ताई तिकणइयाई तेरासिअसुत्तपरिवाडीए बावीसं सुत्ताइंचउक्कणइयाई समयसुत्तपरिवाडीए, बावीसविहे पोग्गलपरिणामे प० तं०- कालवण्णपरिणामे नीलवण्णपरिणामे लोहियवण्णपरिणामे हालिद्दवण्णपरिणामे सुकिल्लवण्णपरिणामे सुब्भिगंधपरिणामे दुब्भिगंधपरिणामे तित्तरसपरिणामे कडुयरसपरिणामे कसायरसपरिणामे अंबिलरसपरिणामे महुररसपरिणामे कक्खडफासपरिणामे मउयफासपरिणामे गुरुफासपरिणामे लहुफासपरिणामे सीतफासपरिणामे उसिणफासपरिणामे णिद्धफासपरिणामे लुक्खफासपरिणामे अगुरुलहुफासपरिणामे गुरुलहुफासपरिणामे, इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्यंगइयाणं नेरइयाणं बावीसं पलिओवमाई ठिई प०, छट्ठीए पुढवीए उक्कोसेणं बावीसं सागरोवमाई ठिई प०, अहेसत्तमाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं जहण्णेणं बावीसं सागरोवमाई ठिई प०, असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं बावीसं पलिओवमाई ठिई प०, सोहम्मीसाणेसु कप्पेसुअत्थेगइयाणंदेवाणंबावीसंपलिओवमाइंठिई प०, अचुते कप्पे देवाणंबावीसंसागरोवमाइंठिई प०, हेट्टिमहेट्ठिमगेवेनगाणं देवाणं जहण्णेणं बावीस सागरोवमाई ठिई प०, जे देवा महियं विसूहियं विमलं पभासं वणमालं अच्चुतवडिंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसिणं देवाणं उक्कोसेणं बावीसं सागरोवमाइंठिई प०, तेणं देवाणं बावीसाए अद्धमासएणं आणमंति वा पाणमंतिवा उस्ससंति वा नीससंति वा, तेसिणं देवाणं बावीस वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पजइ, संतेगइया भवसिद्धिया जीवाजे बावीसं भवगहणेहिं सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति॥सूत्रम् 22 // द्वाविंशतितमं तु स्थानं प्रसिद्धार्थमेव, नवरं सूत्राणि षट् स्थितेरर्वाक्, तत्र मार्गाच्यवननिर्जरार्थं परिषह्यन्ते इति परीषहाः, दिगिंछ त्ति बुभुक्षा सैव परीषहो दिगिञ्छापरीषह इति, सहनं चास्य साधुमर्यादानुल्लङ्घनेन, एवमन्यत्रापि 1, तथा पिपासा
SR No.600440
Book TitleSamvayang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyakiritivijay
PublisherShripalnagar Jain Shwetambar Murtipujak Derasar Trust
Publication Year2012
Total Pages300
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_samvayang
File Size20 MB
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