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________________ 4. चतर्थ मध्ययनम श्रीआवश्यक नियुक्तिभाष्यश्रीहारि० ४.१ध्यान वृत्तियुतम् भाग-३ // 1092 // पाणगदव्वं च तहिं जं णत्थि तेण बेड़ कज्जंतु / निग्गय हिंडंतो कुणइ अणेसणं नविय पेल्लेइ॥११॥ इय एकवारबितियं च हिंडिओ लद्ध ततियवारंमि / अणुकंपाए तरंतो तओ गओ तस्सगासंतु॥१२॥खरफरुसनिट्ठरेहिं अक्कोसइ सो गिलाणओ प्रतिक्रमणं रुट्ठो। हे मंदभग्ग! फुक्किय तूससि तं नाममेत्तेणं // 13 // साहुवगारित्ति अह समुद्दिसिउमाओ। एयाएऽवत्थाए तं अच्छसि भत्तलोभिल्लो // 14 // अमियमिव मण्णमाणोतं फरुसगिरंतु सो उसंभंतो। चलणगओ खामेइ धुवइ यतं असुइमललितं शतकम्। ॥१५॥उटेह वयामोत्ती तह काहामी जहा हु अचिरेणं / होहिह निरुआ तुब्भे बेती न वएमि गंतुंजे॥१६॥आरुहया पिट्ठीए / सूत्रम् 20(21) आरूढो ताहे तो पयारं च / परमासुइदुग्गंधं मुयई पट्ठीए फरुसं च // 17 // बेड़ गिरं धिम्मुंडिय!, वेगविघाओ कओत्ति पडि०पंचहिं दुक्खविओ। इय बहुविहमक्कोसइ पए पए सोऽवि भगवं तु // १८॥ण गणेई फरुसगिरं णयावि तं दुसइ तारिसं गंधं / / कामगुणेहिं इर्यासमित्यादि चंदणमिव मण्णंतो मिच्छामिह दुक्कडं भणइ ॥१९॥चिंतेइ किह करेमी किह हु समाही हविज साहुस्स? / इय बहुविहप्पयारं दृष्टान्ताः। नवि तिण्णो जाहे खोहेउं / / 20 // ताहे अभित्थुणंतो सुरो गओ आगओ य इयरो य। आलोएइ गुरूहि य धन्नोत्ति तओ पानकद्रव्यं च तत्र यन्नास्ति तेन ब्रवीति कार्य तु। निर्गतो हिण्डमाने करोत्यनेषणां न च प्रेरयति // 11 // एवमेकवारं द्वितीयं च हिण्डितो लब्धं तृतीयवारे। अनुकम्पया त्वरयन् ततो गतस्तत्सकाशं तु / / 12 / / खरपरुषनिष्ठुरैराक्रोशति स ग्लानो रुष्टः। हे मन्दभाग्य! वृथैव तुष्यसि त्वं नाममात्रेण / / 13 / / साधूपकार्यमहमिति नामाथ समुद्दिश्याथायातः / एतस्यामवस्थायां त्वं तिष्ठसि भक्तलोलुपः॥ 14 // अमृतमिव मन्यमानस्तां परुषगिरं तु स तु संभ्रान्तः। चरणगतः क्षमयति प्रक्षालयति च तमशुचिमललिप्तम् // 15 // उत्तिष्ठ व्रजाव इति तथा करिष्यामि यथाऽचिरेणैव / भविष्यसि नीरोगस्त्वं ब्रवीति शक्नोमि न गन्तुम् // 16 // आरोह पृष्ठौ आरूढस्तदा / ततः प्रचारं (विष्ठां) च। परमाशुचिदुर्गन्धां मुञ्चति पृष्ठौ परुषां च // 17 // ब्रवीति गिरां धिग् मुण्डित! वेगविघातः कृत इति दुःखापितः / इति बहुविधमाक्रोशति पदे पदे / // 1092 // सोऽपि भगवांस्तु // 18 // न गणयति परुषगिरं न चापि तं दूषयति तादृशं गन्धम् / चन्दनमिव मन्यमानो मिथ्या मे इह दुष्कृत भणति // 19 // चिन्तयति कथं कुर्वे कथं च समाधिर्भवेत् साधोः?। इति बहुविधप्रकारैर्नव शक्तो यदा क्षोभयितुम् // 20 // तदाऽभिष्टुवन् सुरो गत आगतश्चेतरश्च / आलोचयति गुरुभिश्च धन्य इति ततो--
SR No.600438
Book TitleAvashyak Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyakiritivijay
PublisherShripalnagar Jain Shwetambar Murtipujak Derasar Trust
Publication Year2012
Total Pages508
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_aavashyak
File Size35 MB
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