SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 492
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीआवश्यक नियुक्तिभाष्यश्रीहारि० वृत्तियुतम् भाग-१ // 470 // विधिप्रदर्शनाय द्वारगाथामाह नि०-मज्जणणिसेज्जअक्खा कितिकमुस्सग्ग वंदणंजेठे। भासंतो होई जेट्टो नो परियाएण तोवन्दे॥७०३॥ एतद्व्याचिख्यासयैवेदमाह नि०- ठाणं पमज्जिऊणं दोण्णि निसिजाउ होंति कायव्वा / एगा गुरुणो भणिया बितिया पुण होंति अक्खाणं // 704 // निगदसिद्धा, नवरं- अक्खाणं ति समवसरणस्य, न चाकृतसमवसरणेन व्याख्या कर्त्तव्यत्युत्सर्गः॥व्याख्यातं द्वारत्रयम्, कृतिकर्मद्वारव्याचिख्यासयाऽऽह नि०-दो चेव मत्तागाइं खेले तह काइयाए बीयं तु / जावइया य सुणेती सव्वेऽवि य ते तु वंदति // 705 // निगदसिद्धैव, नवरं मात्रक-समाधिः, कृतिकर्मद्वार एव च विशेषाभिधानमदुष्टमिति, अर्द्धकृतव्याख्यानोत्थानानुत्थानाभ्यां पलिमन्थाऽऽत्मविराधनादयश्च दोषा भावनीया इति द्वारम् / अधुना कायोत्सर्गद्वारं व्याचिख्यासुराह नि०-सव्वे काउस्सगं करेंति सव्वे पुणोऽवि वंदति ।णासण्णेणाइदूरे गुरुवयणपडिच्छगा होंति // 706 // __ सर्वे श्रोतारः श्रेयांसि बहुविघ्नानी तिकृत्वा तद्विघातायानुयोगप्रारम्भनिमित्तं कायोत्सर्गं कुर्वन्ति, तं चोत्सार्य सर्वे पुनरपि वन्दन्ते, ततो नासन्ने नातिदूरे व्यवस्थिताः सन्तः, किं?- गुरुवचनप्रतीच्छका भवन्ति- शृण्वन्तीति गाथार्थः॥ साम्प्रतं श्रवणविधिप्रतिपादनायाह नि०-णिद्दाविगहापरिवजिएहिं गुत्तेहिं पंजलिउडेहिं / भत्तिबहुमाणपुव्वं उवउत्तेहिं सुणेयव्वं / / 707 // नि०- अभिकंखंतेहिं सुहासियाइँवयणाइँ अत्थसाराइं। विम्हियमुहेहिं हरिसागएहिं हरिसंजणंतेहिं / / 708 // | 0.3 उपोद्धातनियुक्तिः 0.3.5 पञ्चमद्वारम्, दशधा| सामाचारी। | नियुक्तिः 703-708 ज्ञानदर्शनचारित्रोपसम्पदः त्रित्रिद्विभेदाः / // 470 //
SR No.600436
Book TitleAvashyak Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyakiritivijay
PublisherShripalnagar Jain Shwetambar Murtipujak Derasar Trust
Publication Year2012
Total Pages498
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_aavashyak
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy