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________________ श्रीसूत्रकृताङ्गं नियुक्तिश्रीशीला० वृत्तियुतम् श्रुतस्कन्धः२ // 730 // श्रुतस्कन्धः 2 षष्ठमध्ययनं आईक्रीयम्, सूत्रम् 19-25 (754-760) आर्द्र कस्योत्तरः वित्तेसिणो मेहुणसंपगाढा, ते भोयणट्ठा वणिया वयंति। वयं तु कामेसु अज्झोववन्ना, अणारिया पेमरसेसु गिद्धा ।।सूत्रम् 22 // ( // 757 // ) आरंभगंचेव परिग्गहंच, अविउस्सिया णिस्सिय आयदंडा। तेसिंचसे उदए जंवयासी, चउरंतणंताय दुहायणेह ॥सूत्रम् 23 // ( // 758 // ) णेगति णचंतिय ओदए से, वयंति ते दो विगुणोदयंमि / से उदए सातिमणंतपत्ते, तमुदयं साहयइ ताइ णाई // सूत्रम् 24 // // 759 // ) अहिंसयं सव्वपयाणुकंपी, धम्मे ठियं कम्मविवेगहेडं। तमायदंडेहिं समायरंता, अबोहीए ते पडिरूवमेयं / / सूत्रम् 25 // ( // 760 // ) __यथा वणिक् कश्चिद् उदयार्थी लाभार्थी पण्यं व्यवहारयोग्यं भाण्डं कर्पूरागरुकस्तूरिकाम्बरादिकं गृहीत्वा देशान्तरं गत्वा विक्रीणाति, तथा आयस्स लाभस्य हेतोः कारणान्महाजनसङ्गं विधत्ते, तदुपमोऽयमपि भवत्तीर्थकरः श्रमणो ज्ञातपुत्र इत्येवं मे मम मतिर्भवति, वितर्को-मीमांसा वेति // 19 // 754 // एवमुक्ते गोशालकेनाईक आह-नवं न कुज्जा इत्यादि, योऽयं भवता दृष्टान्त प्रदर्शितःस किं सर्वसाधर्म्यणोत देशतः?, यदि देशतस्ततोन नः क्षतिमावहति, यतो वणिग्वत् यत्रैवोपचयं पश्यति तत्रैव क्रियां व्यापारयति न यथाकथञ्चिदित्येतावता साधर्म्यमस्त्येव, अथ सर्वसाधर्येण तन्न युज्यते, यतो भगवान् विदितवेद्यतया सावधानुष्ठानरहितो नवं प्रत्यग्रं कर्म न कुर्यात्, तथा विधूनयति अपनयति पुरातनं यद्भवोपग्राहि कर्म बद्धम्, Oणेगंत णचंतिव (मु०)। // 730 //
SR No.600435
Book TitleSutrkritang Sutram Dwitiya Shrutskandh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyakiritivijay
PublisherShripalnagar Jain Shwetambar Murtipujak Derasar Trust
Publication Year2012
Total Pages328
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_sutrakritang
File Size24 MB
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