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________________ श्रीसूत्रकृताङ्गं नियुक्तिश्रीशीला० वृत्तियुतम् श्रुतस्कन्धः२ // 602 // श्रुतस्कन्धः२ द्वितीयमध्ययनं क्रियास्थानम्, सूत्रम् 35 (670) आरम्भादिमन्तो नरकगामिनः अन्नयरंसि वा अहालहुगंसि अवराहंसि सयमेव गरुयं दंडं निवत्तेइ, तंजहा-इमं दंडेह इमं मुंडेह इमंतजेह इमं तालेह इमं अदुयबंधणं करेह इमं नियलबंधणं करेह इमं हड्डिबंधणं करेह इमं चारगबंधणं करेह इमं नियलजुयलसंकोधियमोडियं करेह इमं हत्थछिन्नयं करेह इमं पायछिन्नयं करेह इमं कन्नछिण्णयं करेह इमं नक्कओट्ठसीसमुहछिन्नयं करेह वेयगछहियं अंगछहियं पक्खाफोडियं करेह इमंणयणुप्पाडियं करेह इमंदसणुप्पाडियं वसणुप्पाडियं जिब्भुप्पाडियं ओलंबियंकरेह घसियं करेह घोलियं करेह सूलाइयं करेह सूलाभिन्नयं करेह खारवत्तियं करेह वज्झवत्तियं करेह सीहपुच्छियगं करेह वसभपुच्छियगं करेह दवग्गिदद्वयंगं कागणिमंसखावियंगं भत्तपाणनिरुद्धगं इमं जावजीवं वहबंधणं करेह इमं अन्नयरेणं असुभेणं कुमारेणं मारेह / / जावि य से अन्भिंतरिया परिसा भवइ, तंजहा-माया इवा पिया इवा भाया इवा भगिणी इवा भज्जा इवा पुत्ता इवा धूता इ वासुण्हा इवा, तेसिपि यणं अन्नयरंसि अहालहुगंसि अवराहंसि सयमेव गरुयं दंडं णिवत्तेइ, सीओदगवियडंसि उच्छोलित्ता भवइ जहा मित्तदोसवत्तिए जाव अहिए परंसि लोगंसि, ते दुक्खंति सोयंति जूरंति तिप्पंति पिटुंति परितप्पंति ते दुक्खणसोयणजूरणतिप्पणपिट्टणपरितप्पणवहबंधणपरिकिलेसाओ अपडिविरया भवंति // एवमेव ते इत्थिकामेहिं मुच्छिया गिद्धा गढिया अज्झोववन्ना जाव वासाइंचउपंचमाई छद्दसमाइंवा अप्पतरो वा भुजतरो वा कालं भुंजित्तु भोगभोगाई पविसुइत्ता वेरायतणाइंसंचिणित्ता बहुइं पावाईकम्माई उस्सनाइंसंभारकडेणं कम्मणा से जहाणामए अयगोले इ वा सेलगोले इ वा उदगंसि पक्खित्ते समाणे उदगतलमइवइत्ता अहे धरणितलपइट्ठाणे भवइ, एवमेव तहप्पगारे पुरिसजाते वजबहुले धूतबहुले पंकबहुले वेरबहुले अप्पत्तियबहुले दंभबहुले णियडिबहुले साइबहुले अयसबहुले उस्सन्नतसपाणघाती कालमासे कालं किच्चा धरणितलमइवइत्ता अहेणरगतलपइट्ठाणे भवइ॥सूत्रम् 35 // ( // 670 // ) // 602 //
SR No.600435
Book TitleSutrkritang Sutram Dwitiya Shrutskandh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyakiritivijay
PublisherShripalnagar Jain Shwetambar Murtipujak Derasar Trust
Publication Year2012
Total Pages328
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_sutrakritang
File Size24 MB
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