________________ श्रीसूत्रकृताङ्ग नियुक्तिश्रीशीला वृत्तियुतम् श्रुतस्कन्धः१ // 239 // 21 // ( // 320 // ) श्रुतस्कन्धः१ छिंदंति बालस्स खुरेण नक्कं, उडेवि छिंदंति दुवेविकण्णे / जिन्भं विणिक्कस्स विहत्थिमित्तं, तिक्खाहिं सूलाहिऽभितावयंति॥ पश्चममध्ययन नरकविभक्तिः, सूत्रम् 22 // ( // 321 // ) प्रथमोद्देशकः सदा सर्वकालंकृत्स्नं संपूर्ण पुनस्तत्र नरके धर्मप्रधानं उष्णप्रधानं स्थिति:- स्थानं नारकाणां भवति, तत्र हि प्रलयातिरिक्ता- सूत्रम् 21-24 323) ग्निना वातादीनामत्यन्तोष्णरूपत्वात्, तच्च दृढेः- निधत्तनिकाचितावस्थैः कर्मभिर्नारकाणां उपनीतं ढौकितम्, पुनरपि विशि नरकवेदना . नष्टि- अतीव दुःखं- असातावेदनीयं धर्मः- स्वभावो यस्य तत्तथा तस्मिंश्चैवंविधे स्थाने स्थितोऽसुमान् अन्दुषु निगडेषु देह विहत्य प्रक्षिप्य च तथा शिरश्च से तस्य नारकस्य वेधेन रन्ध्रोत्पादनेनाभितापयन्ति कीलकैश्च सर्वाण्यप्यङ्गानि वितत्य चर्मवत् / कीलयन्ति इति // 21 // 320 // अपिच-ते परमाधार्मिकाः पूर्वदुश्चरितानि स्मरयित्वा बालस्य अज्ञस्य-निर्विवेकस्य प्रायशः सर्वदा वेदनासमुद्धातोपगतस्य क्षुरप्रेण नासिकां छिन्दन्ति तथौष्ठावपि द्वावपि कौँ छिन्दन्ति, तथा मद्यमांसरसाभिलिप्सोम॑षाभाषिणो जिह्वां वितस्तिमात्रामाकृष्य तीक्ष्णाभिः शूलाभिः अतिपातयन्ति अपनयन्ति इति // 22 // 321 // तथा ते तिप्पमाणा तलसंपुडंव, राइंदियं तत्थ थणंति बाला। गलंति ते सोणिअपूयमंसं, पज्जोइया खारपइद्धियंगा। सूत्रम् 23 // ( // 322 // ) जइ ते सुता लोहितपूअपाई, बालागणी तेअगुणा परेणं / कुंभी महंताहियपोरसीया, समूसिता लोहियपूयपुण्णा // सूत्रम् 24 // ( // 323 // ) (c) माक्षिप्य (मु०)। // 239 //