________________ श्रीआचाराङ्गं नियुक्तिश्रीशीला० वृत्तियुतम् श्रुतस्कन्धः२ // 646 // श्रुतस्कन्धः२ चूलिका-१ द्वितीयमध्ययन शय्यैषणा, तृतीयोद्देशकः सूत्रम् 316-320 वसतौ अस्थानम् __ से भिक्खूवा० से जं०, इह खलु गाहावई वा० कम्मकरीओवा अन्नमन्नं अक्कोसंति वा जाव उद्दवंति वा नो पन्नस्स०, सेवं नच्चा तहप्पगारे उ० नो ठा०॥ सूत्रम् 316 // से भिक्खूवा० से जं पुण० इह खलुगाहावई वा कम्मअरीओवा अन्नमन्नस्स गायं तिल्लेण वा नव० घ० वसाए वा अब्भंगेति वा मक्खेंति वा नो पण्णस्स जाव तहप्प० उव० नो ठा०॥ सूत्रम् 317 // से भिक्खूवा० सेजंपुण०-इह खलु गाहावई वा जाव कम्मकरीओ अन्नमन्नस्स गायं सिणाणेण वा क० लु०चु०प० आघंसंति वा पघंसंति वा उव्वलंति वा उव्वट्टिति वा नो पन्नस्स०॥ सूत्रम् 318 // से भिक्खू० से जंपुण उवस्सयं जाणिज्जा, इह खलु गाहावती वा जाव कम्मकरी वा अण्णमण्णस्स गायं सीओदग० उसिणो० उच्छो० पहोयंति सिंचंति सिणावंति वा नो पन्नस्स जाव नो ठाणं० / / सूत्रम् 319 // सुगमम्, नवरं यत्र प्रातिवेशिका: प्रत्यहं कलहायमानास्तिष्ठन्तितत्र स्वाध्यायाधुपरोधान्नस्थेयमिति॥एवं तैलाद्यभ्यङ्गकल्काद्युद्वर्त्तनोदकप्रक्षालनसूत्रमपि नेयमिति // 316-319 // किञ्च से भिक्खू वा० से जं० इह खलु गाहावई वा जाव कम्मकरीओ वा निगिणा ठिया निगिणा उल्लीणा मेहुणधम्मं विन्नविंति रहस्सियंवा मंतं मंतंति नो पन्नस्स जाव नो ठाणं वा 3 चेइज्जा ॥सूत्रम् 320 // यत्र प्रातिवेशिकास्त्रियः णिगिणाउ त्ति मुक्तपरिधाना आसते, तथा उपलीनाः प्रच्छन्ना मैथुनधर्मविषयं किञ्चिद्रहस्य रात्रिसम्भोगं परस्परं कथयन्ति, अपरं वा रहस्यमकार्यसंबद्ध मन्त्र मन्त्रयन्ते, तथाभूते प्रतिश्रये न स्थानादि विधेयम्, यतस्तत्र स्वाध्यायक्षतिचित्तविप्लुत्यादयो दोषाः समुपजायन्त इति // 320 // अपि च // 646 //