________________ जक्ता || माक्रांतऋशकचक्रः परमजैनः स श्रीयादिदेवप्रतिमां गुरुप्रासादे न्यवेशयत्, चिरं च राज्यनागनु दित्येकोनविंशी कथा // 21 // अथातिशयदारेण जिनं स्तौति // मूलम् // उन्निद्रहेमनवपंकजपुंजकांति-पर्युलसन्नखमयूखशिखाभिरामौ // पादौ पदा. नि तव यत्र जिनेंद्र धत्तः / पद्मानि तत्र विबुधाः परिकल्पयंति // 32 // व्याख्या-हे जिनेंद्र! त. व पादौ चरणौ यत्र मौ पदानि गमनेऽवस्थानरूपाणि धत्तो धारयतः, विबुधास्तत्र धरापीठे पद्मानि कमलानि परिकल्पयंति रचयंति निर्मापयंतीत्यर्थः. किंवृतौ चरणौ ? नन्निद्राणि विकस्वराणि हेम्नः स्वर्णस्य नवानि नूतनानि नवसंख्यानि वा पंकजानि कमलानि तेषां पुजश्चयस्तस्य कांतिर्युतिः, तः / या पर्युवसंती समंतादुबलंती या नखानां मयूखशिखा किरणचूला, तयान्निरामौ रुचिरौ, कोऽर्थः? एका नवस्वर्णकमलकांतिः पीता, अपरा दर्पणनिन्ना नखप्रभा च चरणौ वर्णविचित्रौ चक्रतुरिति पद्मानापुंजत्वमागमेऽप्युक्तं-सुरुदयपछिमाए / जंगाहंती पुवनश्प३ // दोहिं पन मेहिं पाया / मग्गेण य हुंति सत्तन्ने // 1 // इति वृत्तार्थः // 35 // अथ संक्षिपति // मूलम् ॥-श्वं यथा तव विभूतिरन्जिनेंद्र / धर्मोपदेशनविधौ न तथा परस्य // यादृक् |