________________ चरित्रम् श्रो सदैववत्स 47 तत्र मे केवलं पञ्च लगिष्यन्ति दिनानि हि // तावदत्र सुखं तिष्ठ तच्छ्रुत्वा सावदत् ततः // 30 // हेनाथ हृदयं ते किमस्ति वज्रमयं खलु // मामत्रैकाकिनी मुक्तवा वाञ्छसि गमनं पुरे // 31 // त्वद्विरहे न शक्नोमि जीवितुं क्षणमप्यहम् // तर्हि पञ्च दिनानां का वार्ता स्वामिन्नितः परम् // 32 // | स्वामिन् पतिव्रता नारी सेवते देववत्पतिम् // सा नूनं तत्कृते स्वस्य प्राणांस्त्यजति सत्वरम् // 33 // | परंतु पुरुषो दुःखं वज्रकठिनमानसः // तस्याः स्वमनसि प्रायो नानयति मनागपि // 34 // | अन्यत्र स्वेच्छया चैव रमयत्यपि स्वं मनः // एवंविधां प्रियावाचं श्रुत्वा तेनेरितं वचः // 35 // | प्रिये नरब्रुवस्यैतत्केवलं लक्षणं स्मृतम् // न दृष्टं न श्रुतं क्वापि ह्युत्तमस्य नरस्य वै // 36 // स्वाधीनेऽपि कलत्रे नचिः परदारलंपटो भवति // परिपूर्णेऽपितडागे काकः कुंभोदकं पिबति // 37 // उत्तमस्तुनरः स्त्रीतो योजनानां शतान्यपि // दुरं गतः प्रियां स्वस्य विस्मरति न चित्ततः // 38 // // निज महिला मुहकमलं पुत्तमुहं धूलि धूसरच्छायम् // सामिमुहं सुपसन्नं जोयणसहवि न विसरइ॥३९॥ | नरो गतो विदेशेऽपि यत्र निजप्रिया स्थिता // निजशक्त्या पुनस्तत्र पश्चादागच्छति द्रुतम् // 40 //