________________ चरित्रम् 16 श्री सदैववत्स यक्षेणोक्तं च भी विप्र प्रातःकाले ममालये // सर्वदा मयूरो हेम्न एको नृत्यं करिष्यति // 8 // स्वर्णपिच्छं तदा तस्य पुच्छतोऽधः पतिष्यति // एकैकं सर्वदा ग्राह्यमित्युक्तः स करोति तत् // 9 // कालेन कियतैवं स धनाढ्यः संबभूव ह // ततस्तेन कलापाना मेकत्र भारकः कृतः // 10 // अतिलोभाभिभूतेन कालक्षेपासहिष्णुना // धृतस्तेन मयूरोऽपि यक्षः कुछोऽभवत्ततः // 11 // अथ रुष्टेन यक्षेण मयूरो वायसः कृतः // अनूवन् काकपिच्छानि द्विजेन मेलितान्यपि // 12 // तेनातिलोभिना चैवं धनं नाप्तं मनागपि // अतीवाकुलितश्चिते स जातो खेदमावहन् // 13 // ततः सदयवत्सोऽपि मनस्येवं विचिंत्य सः // तद्धनग्रहणायाने चलितोऽनुत्सुकीभवन् // 14 // गन्तव्य मुक्तंच शतं पुराणां ज्ञेयानि विज्ञानशतानि चैव सेव्यं शतं चाथ नराधिपानां स्थानांतरं भोग्य मतः प्रयुक्तम् // 415 // एवं कृत्वा गतो मार्ग कौतुकानि विलोकयन् // ततः पञ्चदिनप्रांते पुरमेकमवाप्तवान् // 16 // | सुंदरीसहितं तत्र दृष्ट्वा तं ग्रामनायकः // कोऽपि भट्टोऽवदद्वाचं भो कुमार क्व यास्यसि // 17 // गमिष्यामि प्रतिष्ठानपुरेऽह मित्युवाच सः // भट्टेनोक्तं हि संध्यायां गमनमुचितं नहि // 18 //