________________ वररुचिः स शुश्राव श्लोकार्थ कोटरस्थितः // चतुर्णामक्षराणां स वृद्धोऽथं तं ततोऽवदत् // 348 // अनेन तव पूत्रस्य प्रसुप्तस्य वनान्तरे // शिखा माक्रम्य पादेन खड्रेन शिरसि हतः // 349 // | हृदयालिकयोरर्थ श्रुत्वाथैवं तयोर्द्वयोः // हर्षोत्कर्षाल्लसद्गात्रो वररुचिर्गृहं गतः // 350 // सकलेऽपि पूरे तत्र पंडितग्रहणाय च // भ्रमंति सैनिका द्रुतं नृपादेशादितस्ततः // 351 // - तै धृताः पंडिताः केऽपि वररुचिस्तदावदत् // धियंते सर्व एवैते मुधैव पंडिताः कथम् // 352 // नूनं प्रश्नोत्तरं दास्ये नृपस्योत स सत्वरम् // सभां गत्वा जगादार्थ हृदयालिकयोरपि // 353 // तच्छ्रुत्वा सकला हृष्टा नृपयुता सभा तदा // अतिप्रशंसयामास वररुचिं महामतिम् // 354 // - सर्वेऽपि पंडिता हृष्टाः मुक्ताः संतो महाभयात् // वरं वर्धापयामासु वररुचिं महागुणम् // 355 // तत्र पद्मपुरे गत्वा विक्रमोऽपि वणिक्सुताम् // परिणिनाय हर्षेणं स तां तिलकमजरीम् // 356 // श्रेष्ठिनापि नृपादेशात् निगृह्य दुष्टक्षत्रियम् // वालितं पुत्रवैरं तत् पुनः प्राप्तं स्वकं धनम् // 357 // | उत्साही कौतुकालोके लघुप्रेतोऽवदत्ततः // पंडितानां न जातं तत् निष्काशनं कथं पुरात्॥३५८॥ | तेनाथ प्रेतवृद्धेन स्वावधिज्ञानतस्तदाः // वररुचेरवस्थानं विज्ञायोक्तं तदग्रतः // 359 //