________________ श्री सदैववत्स चरित्रम् नट्टोऽवक् देव तेनाथैकब्राह्मण्याः कृते खलु // रक्षायाः सदृशो हस्ती चैरावणेन मारितः // 485 // मानितोऽपिच राज्ञा स बहुस्तथापि वैरिणा // पूर्वेण दोषयुक्तेन मन्त्रिणा विहितश्च सः // 486 // उपायो येन राजा वै तस्मै कोपं चकार ह // कुमारं तं स्वदेशाद्वै ह्यास निर्वासयां तथा // 487 // कविर कविःपटुर पटुः शृरी भीरुश्चिरायुरल्पायुः // कुलजः कुलेन हानो भवति नरो नरपतेः कोपात् // 488 / / एवं राजकुमारे च विदेशे हि गते सति // तस्य भट्टा निराधारा विदेशे च चमन्ति हि // 489 // पुष्पफलसमृद्धया वै प्रीणितपक्षियूथके // वृक्षे सति समुच्छिन्ने तदाधारा विहंगमाः // 490 // दिशो दिशं च गच्छंति चाकलीभतमानसाः॥ छायासुप्तमृगः शकुंतनिवहेविश्वग विल्लुप्तच्छदः // कीटे रावृत्तकोटरः कपिकुलैः स्कंधे कृतप्रश्रयः॥ विश्रब्धं मधुपैनिपीतकसमः श्लाध्यः सतां यस्तरु क्षीणेऽस्मिन् बहुजीवसंघसुखदे यांति निराशा अमी // 491 // | अथ राजा पुनस्तं च पृच्छति भट्टराज भो॥ स च राजकुमारो वै यातो निर्गत्य कुत्र च // 492 / / भट्टो वक्ति स कस्यां वै सपत्नीकोऽस्ति निर्गतः // दिशि देव परं चेति नाहं वेनि मनागपि // 493 //