________________ वरं मृत्यु बरं भिक्षा वरं वासश्च वैरिषु // देवाद्विपदि जातायां श्वशुराभिगमो नतु // 336 // | उत्तमाः स्वगुणैः ख्याता मध्यमास्तु पितुर्गुणैः // अधमा मातुलैः प्रोक्ताःश्वसुरैस्त्वधमाधमाः // 337 // | तावदेवपुमान् श्लाघ्यस्तावदेव गुणालयः॥ यावत् परमुखं नैव प्रेक्षते स्वात्मनः कृते // 338 // चिन्तयति प्रियायाश्च पुनस्तद्वचनं खल्नु // प्रमाणमेव युक्तत्वात् भवतु च यथा गृहे // 339 // इमां च सावलिंगां वै तस्याः पितुश्च संनिधौ॥ अहं मुस्कलपादो वै पश्चान्मुक्त्वा निजेच्छया॥३४०॥ | भूमि विलोकयिष्यामि तेन ज्ञानं भविष्यति // विद्यां वित्तं शील्पं तावन्नाप्नोति मानवो नूनम् // 34 // . यावद्भ्रमति न भूमौ देशाद् देशांतरं हृष्टः॥ नानाश्चर्यमयीं पृथ्वीं यो न पश्यति कातरः // 342 // निजापत्याग्रतः कानि कौतुकानि स वक्ष्यति // सर्वेषां पंडितानां च मतमेतन्न संशयः // 353 // एवं स्वप्रिययायुक्तः सदयोऽ थ ततः क्रमात् // इति विचिन्त्य धीरः स प्रतिष्ठानपुरस्य वै // 344 // मार्गे चचाल तत्रापि चिन्तयति स धीरधीः // येयं मम प्रिया प्राग्वै सावलिंगा सुखासनम् // 345 // विना चेपा कदाचिच्च वहिनिस्सरणं मता // साऽधुना पादचारेण चलति दुःखतः खलु // 346 // | यस्याः पूर्व च सूर्येण मुखं तु नावलोकितम् // रोषेण सच तेनैव स्वोग्रकरैश्चता रविः // 347 //