________________ चरित्रम् 13 तत्स्वरूपं च चेष्टां च मन्त्रिणोऽकथयच्च सः॥ मातुर तदा माता विदेशयानवार्तया // 272 // पीडिता सा सुतं प्राह ह्यश्रुभिः पूर्णलोचना // त्वं प्रसादय राजानं पतित्वा पादयोधुवम् // 27 // | उत्तमाना प्रकोपश्च प्रणामान्तो हि दृश्यते // प्रसादयामि तं नूनं कुमारो वक्ति मातरम् // 274 // नैव यास्यति भूपः स प्रसादं च तथापि भोः // मातरिति च सत्यं हि दृश्यते मम मानसे // 275 // निमितमुदिइन हि पः अकुप्पति भुवं स तस्यापगमे प्रसीदति // अकारणाद द्वेषपरोहि यत्र कथं नरोऽसौ परितोषमेति // 26 // मातोचे वत्स सत्यं ते वचनं नैव संशयः // स्वभावेनैव राजानः शक्याश्चालयितुं नहि // 277 // जलधेरपिकल्लोला श्चापल्यानि कपेरपि // शक्यन्ते यत्नतो रोऽधुं न पुनः प्रभुचेतसाम् // 27 // | किंचिद्वै कथयित्वाहं विलोकयामि वत्सक // एकांते वक्ति राजानं देव चैको हि सद्यताम् // 279 // अपराधः सुतस्यापि सर्वेषा मेष निश्चयः // अन्यथा वाच्यतां याति हे राजन् मन्यतां त्वया // 20 // दोषेणैकेन न त्याज्यः सेवकः सुगुणोऽधिपैः // धूमदोषतया वन्हिः किमु केनाप्यपास्यते // 281 / / तयेत्यादि बहुक्तेऽपि वचनं नाप्यमन्यत // राजा ततश्च सा प्राह यदेवं देव नाहति // 282 //