________________ श्री सदैववत्स चारत्रम तदा मुंचामि वेताल मृतकं प्राह तं ततः॥ अत्रस्थ आनयिष्यामि त्वं न मुंचसि मां यदि // 7 // उवाच विस्मतो वत्सः कुरु तर्हि त्वमेव तत् // तेनाथ मृतकस्थेन वेतालेनाद्भुतं कृतम् // 7 // स्वर्णस्य पट्टिकां स्वर्णसारिकाः पाशकादिकम् // विधाय प्रति लंबं स्वं बाहुमानीतमग्रतः // 2 // आनीयाथ कुमारस्य हस्ते दत्त्वाऽवदच्च तम् // कुमार अधुना द्यूतं रमस्व त्वं मया सह // 73 // चिंतयत्यथ वत्सोऽसौ वेतालो मृतके स्थितः॥ वदत्यस्य पुनर्गतुं गृहे शक्तिर्विभाव्यते॥७४॥ अतश्चेदेष वेताल एव निगृह्यते मया // वरं तदैव विचार्येति कुमारः प्राह तं प्रति // 75 // गुह्यक रम्यते नास्ति पार्श्व मे पणमोचनम् // तदा ब्रूते स वेतालो ह्यसिरेव पणेऽस्तु ते // 76 // उवाचाथ कुमारोऽसावपरेण पणेन किम् // आवयो मस्तके एव सुखेन भवतां पणे // 77 // तच्छ्रुत्वा मृतकस्थेन वेतालेन विचिंतितम् // ग्रहीष्यामि शिरोऽस्यैव जित्वा तं दिव्यशक्तितः // 78 // | चिंतितं तु कुमारेण वेतालस्यास्य मस्तकम् / / ग्रहीष्याम्यह मेवाद्य हरसिद्धिप्रभावतः // 79 // स्वस्वचित्ते विचिंत्यैव मारब्धं यूतकं तदा // कुमारेण जितं तस्य मस्तकं शक्तिशक्तितः॥ 8 // वत्सेन स्वासिना छिन्नं मस्तकं तत्र संस्थितः // वेतालो व्यंगदेहत्वान् नष्ट्वा दूरे गतस्तदा // 1 //