________________ चतुर्थे II IIEI स्कन्धे सर्गः१ // 70 // इति प्रलपतस्तस्य शक्रभ्रूभङ्गनोदितः / नैगमेपी सुरश्रेष्ठः साक्षेपमिदमब्रवीत् // 12 // अरेरे ! कोऽयमत्यन्तं धर्मकर्माणि कृन्तति ? / सुधर्माधिपतौ विश्वं पाति धर्मधुरन्धरे // 13 // तिष्ठ तिष्ठ दुराचार ! क चिरं जीव्यतेऽधुना ? / आतालुमूलतो जिह्वामयमुन्मूलयामि ते // 14 // कृत्याकृत्यविवेकश्चेद् न कश्चिदिह वर्तते / तेजसस्तमसश्चापि तुल्यत्वं तत कथं न हि ? // 15 // प्रत्यक्ष एवं विश्वेऽस्मिन् प्रपञ्चः पापपुण्ययोः / यद् विभिन्न जगत् सर्व सुखदुःखव्यवस्थया // 16 // एके कुर्वन्ति साम्राज्यं परे दधति दासताम् / स भवान्तरबद्धानां विपाकः कर्मणामिह // 17 // न दृश्यते हि भगवान् आत्मा सर्वत्र सङ्कमन् / सञ्चरन् पुष्पजातिभ्यो गन्धः पात्रान्तरेष्वपि // 18 // समानेऽपि हि वृक्षत्वे भेदश्चेदाम्रनिम्बयोः / तथा तुल्येऽपि मर्यत्वे वर्णानामन्तरं महत् // 19 // अधुनैव भवेत् सर्वमेकार्णवमयं जगत् / मर्यादासेतुबन्धोऽयं श्लथीभवति चेद् मनाक // 20 // तज्जगत्प्रलयं नेतुं स्थितिभङ्गं चिकीर्षताम् / वधः शीघ्रं विधातव्यो नास्तिकानां दुरात्मनाम् // 21 // अयं हि विभ्रमान्धानां चार्वाकमतवर्तिनाम् / उत्पथस्खलितं हन्ति राजदण्डो महाबलः // 22 // तदेष प्राप्यसे प्रान्तं दुरात्मन्नित्युदीर्य सः। आददे त्रिदशः शक्तिं किङ्किणीजालमालिनीम् // 23 // तां विलोक्य तडिद्भासं दिव्यशक्तिं भयातुरः। पपात स लुठन् बन्दी पुरस्तात् शक्रपादयोः // 24 // रक्ष रक्ष जगन्नाथ ! व्यक्तं वैतालिकोऽस्म्यहम् / युक्ता कृतापराधेऽपि कृपेव कृपणे सताम् // 25 // FII-III-IIIEI चावार्कश्रीमतवर्तिनां केषांश्चित् | मनुजानां शक्रप्रेरितस्य नैगमेषिण उपदेशः॥ IAHINI ATHI II IITrle // 70 // जाह