________________ सुमित्रा चरित्रम तेषु मद्भोगलुब्धेषु वेगादहमिहापतम् / वरं हि मरणं स्त्रीणां न पुनः शीलखण्डनम् // 25 // __ अ० तेओ मारी साथे भोग भगववाने लालचु थये छते, हुं एकदम आ कूवामां पडी, केमके स्त्रीओने माटे मृत्यु पामबुं सारं, | परंतु शीलनु खन्डन थQ सारुं नथी. // 25 // कृतान्तमुखरूपेऽस्मिन्कूपेऽपि पतिता प्रिय / जीवितास्मि भवद्वक्तालोकभोक्तव्यकर्मभिः // 26 // अ०-हे स्वामी ! यमना मुख सरखा आ कूवामां पड्या छतां पण आपनु मुख जोवाना भोगावली कर्मोथी हुँ जीवती रही हूं. कथ्यतां च कयं पातः कूपेऽत्र भवतामपि / सचिवः स च विद्वेषी विदधे किं विरोधतः // 27 // अ०-वळी कहो के, आ कुवामां आपनुं पण शांथी पडवू थयु ? अने ते द्वेषी मंत्रीए विरोधथी शुं कर्यु ? // 27 // जगाद जिनदासोऽथ सचिवे मारणोत्सके गृहतः कर्मकत्कटादेकोऽहं निशि निःसृतः // 28 // अ०-पछी जिनदासे का के ते मंत्री ज्यारे मारवाने उद्यमवन्त थयो, त्यारे हुं नोकरनो वेष लेइ एकाकी घरमांथी रात्रीए नीकळी गयो. निरन्तरविहारेण कान्तारेऽत्र समागतः / तृषितोऽस्मिन्पयः पश्यन्पादस्खलनतोऽपतम् // 29 // अ०-पछी निरंतर चालतो थको हुँ आ वनमां आवी चडयो, तथा तृषा लागवाथी आ कुवामां जल जोतोथको पग सरीपडवाथी (अंदर) पडी गयो.॥ 29 // मनावर