________________ अघटकु. चरित्रम्. 5560 Morotorto धिग् राजसेवां दुरव्यसनद्रुमवाटिकाम् / अर्चिष्मत इवाऽभक्ष्यं नाऽकृत्यं यत्र किञ्चन // 83 // तदहो! हृदयान्धेन भूभुजा पुण्यदुर्लभः। निहन्यते कथमयं क्षीरकण्ठोऽतिमुग्धधीः॥ 84 // अवरोधं विदुद्राव किमु कोषं मुमोप वा ? / कुल्यो वा राज्यमादास्यमानः शत्रुसुतोऽथवा ? // 85 // व्यनीनशन्नृपोऽप्येनं नूनं अवेयकाम्यया / अलं निगृह्य तद्राज्ञे तदेवादाय ढोक्यते // 86 // हृचक्षुषा विभाव्यैवं गृहीत्वा कण्ठभूषणम् / मालिनीतनयं तं स बहिर्देवकुलेऽमुचत् // 87 // . उपराजं जगामाऽथ तद् अवेयकमार्पयत् / राजापि मुमुदे तेन निष्कण्टकमभूदिति // 88 // इतश्चान्तर्देवकुलमघटः पुण्यकङ्कटः / अभ्रात्पतितवद्धाम्यल्लेपयक्षं निरक्षत // 89 // खतातमिव तं जाननालिलिङ्ग प्रमोदभाक् / अङ्कमारुह्य तत्तुङ्गं कूर्च पस्पर्श बालकः // 9 // जल्पन्तं ताततातेति क्रीडमानं तमङ्कगम् / मुमुदे तदधिष्ठातो तदा यक्षो निरीक्ष्य सः // 91 // जिह्वयाऽपि मया पित्रा पाल्योऽसौ पुत्रवत्ततः / रास्त्रियामी क्षणवत् तस्य क्रीडाभिरक्षिपत् // 12 // अथ वासितमासन्ने वने देवधराह्वयम् / निष्पुत्रमश्चक्रयिकं ज्ञात्वा ज्ञानेन यक्षराट् // 93 // उपेत्य शयनीयस्थं निद्राणमुदलीलपत् / अये ! त्वं शेषे जागीयेवं मधुरया गिरा // 94 // स तदातु प्रबुद्धः सन् शय्यां मुक्त्वा सविस्मयः ऊचे त्वमीश!क इति प्रोक्तो यक्षोऽब्रवीदिति // 95 // 1 अग्नेः / 2 अन्तःपुरम् / 3 पुण्यकवचः / 4 561%A5 // // 4 // %