________________ बालकक्ष सिरिसिरि // 131 // सकसXXSEX मंतण तेण तुट्ठो धवलो अप्पेइ कोडिमुलंपि / नियकरमुद्दारयणं वेगणं तस्स पाणस्स // 707 // तुट्टो सोवि हु डुंबो सकुडंबो जाइ निवगवक्खस्स / हिटिममहीइ चिठ्ठइ गायंतो गीयमइमहुरं // 708 // ताणं कोमलकंठुब्भवण गीएण हरियमणकरणो / राया भणेइ भो भो ! जं मग्गह दमि तं तुन्भं // 709 // मुद्रारत्नं वेगेन तस्मै 'पाणस्स' त्ति-डुम्बाय अर्पयति-ददाति // 707 // स डुम्बोऽपि तुष्टः सन् सकुटुम्बःकुटुम्बसहितो याति-राजद्वारं गच्छति अति मधुरं गीतं गायन् नृपगवाक्षस्य अधस्तनपृथिव्यां तिष्ठति // 708 // तेषां डुम्बानां कोमलकण्ठोद्भवेन-कोमलकण्ठादुत्पन्नेन गीतेन हृते मनःकरणे-चित्तश्रोत्रेन्द्रिये यस्य स एवंविधः सन् राजा वसुपालो भणति, भो भो गायना ! यत् यूयं माग्गेयध्वं-याचध्वं तत् युष्मभ्यं ददामि // 709 // ७०७-स्पष्टम् / ७०८-अत्र "दुबो सकुडम्बं" इत्यत्र छेकानुप्रासोऽलङ्कारः / ७०९-स्पष्टम् / // 131 //