________________ पात सिरिसिरि // 219 // एवं नवनवलीलाहिं चेव सुक्खाणि अणुहवंतो सो। धम्मनिइइ पालइ रज्ज निकंटयं निचं // 1215 // रज्जं च तस्स पालंतयस्स सिरिपालनरवरिंदस्स। जायाइं जाव सम्मं नव वाससयाइ पुन्नाई // 1216 // ताव निबो तं तिहुअणपालं रज्जंमि ठावइत्ताणं। सिरिसिद्धचक्कनवपयलीणमणो संथुणइ एवं // 1217 // पदातीनां नवकोटय आसन् // 1214 // एवम्-अमुना प्रकारेण नवनवलीलाभिः-नवनवक्रीडाभिरेव सुखानि अनुभवन् स श्रीपालो धर्मनीत्या-धर्मन्यायेन नित्यं निष्कण्टकं राज्यं पालयति // 1215 // राज्यं पालयत. स्तस्य च श्रीपालनरवरेन्द्रस्य यावन्नववर्षशतानि सम्यग् पूर्णानि जातानि // 1216 // तावन्नृपः श्रीपालस्तं पूर्वोक्तं त्रिभुवनपालं-स्वज्येष्ठपुत्रं राज्य स्थापयित्वा श्रीसिद्धचक्रे यानि नवपदानि तेषु लीनं-लग्नं मनो यस्य स सिद्धचक्रनवपदलीनमनाः सन् एवं-वक्ष्यमाणप्रकारेण संस्तौति // 1217 / / शेषाः-अवशिष्टास्त्रयो भवा / १२१५-अत्र ‘रज्जंनिकंटयं' इत्युक्त्या भूमण्डले तस्य क्षुद्रशत्रुरपि कोऽपि नासीदिति महानुत्कर्षा व्यज्यते / १२१६-१२१७-स्पष्टानि / // 219 // ENGamsane