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________________ वालकहा . सिरिसिरि का 174 // मिलिए य सयणवग्गे आणंदभरे य वट्टमाणे अ। सिरिपालेणं रन्ना नाडयकरणं समाइह // 959 // तो झत्ति पढमनाङयपेडयमाणंदिरं समुढेइ / परमिका मूलनडी बहुंपि भणिया न उठेइ // 960 // कह कहबि पेरिऊणं जाव सट्टाविया निरुच्छाहा / तो तीए सविसायं दूहयमेगं इमं पढियं // 961 // अथ स्वजनानां सम्बन्धिनां वर्ग-समूहे च मिलिते सति आनन्दभरे-हर्षोत्कर्षे च वर्तमाने सति श्रीपालेन राज्ञा नाटककरण समादिष्ट, नाटककरणाज्ञा दत्तेत्यर्थः / / 959 / / ततः-तदनन्तरं झटिति-शीघ्रं प्रथमनाटकस्य पेटकं वृन्दं आनन्दितं-हर्षितं सन् समुत्तिष्ठति परं, एका मूलनटी-मुख्यनर्तकी बहुभणितापि-बहुक्तापि न उत्तिष्ठति // 960 // निर्गत उत्साहो यस्याः सा निरुत्साहा मूलनटी कथं कथमपि प्रेरयित्वा यारत् समुत्थापिता तावत्तया-- मूलनटथा सविषाद--विषादसहित इदमेकं दोहानामकं छन्दः पठितम् // 961 // किमिदमित्याह-क्व ? माल ९६१-स्पष्टम् / // 174 //
SR No.600404
Book TitleSirisiriwal Kaha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri, Bhanuchandravijay
PublisherYashendu Prakashan
Publication Year1963
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size13 MB
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