________________ पणिपति चरित्रम. सिंहीकथा कुरङ्गी प्राह सुप्ताया यदि म केनचिन्मुखम् / रक्तेनालिम्पि पापेनाहं त्विदानी समुत्थिता // 1314 // शृगाली प्राह दुष्टे किं कश्चित्कृत्वा विरूपकम् / कदाचिदपरोऽप्यन्यो मुखेन प्रतिपद्यते // 1315 // हरिण्युवाच यद्यस्ति न प्रतीतिः सुखेन ते / करोमि शपथं पापे ! यं ब्रूषे किश्चिदुग्रकम् // 1316 // शृगाल्याह न ते कश्चित् प्रत्येति शपथैरपि ! अकार्यकारिणां ते हि संभाव्यन्तेऽनृता अपि // 1317 // इति दृष्ट्वा तयोः सिंही विवाद मत्सरावहम् / कया कृतं न वेदैतद-नयोरित्यचिन्तयत् // 1318 // अहं तावत् मृगों जाने तृणाहारां सदैव हि / अतोऽत्ति शावकानेषा नैतत् संभाव्यते वचः // 1319 // एषा पुनः शृगाली हि मांसाऽऽहाराऽपि दृश्यते / अतः संभाव्यते प्राय एतस्याः शावभक्षणम् // 1320 // कुरल्या अप्ययं वक्त्र-लेपः शङ्कां करोति मे / अतो न ज्ञायते तत्त्वं कयापीदं व्यधीयत // 1321 // अथवा प्रज्ञया व्यक्तं विधेऽहं यथा तथा / निहोर्नु नैव शक्नोति काचिदप्यनयोर्ननु // 1322 // इति संकल्प्य सिंह्याऽऽह मृगी, वान्ति विधेहि मे / पुरतो निश्चयं येन करोमि युवयोरहम् // 1323 // ततः सिंहवधूवाक्या-दपशङ्काऽकरोन् मृगी। वान्तिं निरपराधा हि न शङ्कां कुरुते क्वचित् // 1324 // यावद्ददर्श रोमन्थ-चूर्णितं तृणसंचयम् / वान्तं तया वराकिन्या नान्यद् मांसादि किश्चन // 1325 // ततः पुनः शृगाल्यूचे भद्रे ! त्वमधुना वम / पश्यामि येन ते भक्ष्यं दृष्टं हरिणयोषितः // 1326 // रऊRAKESARKAREAL