________________ जिन श्रीअमम- स्तया सार्द्ध नरिनत्तिं तु सम्मदात् / लोभनन्दी ततोऽनृत्यत् तयोस्तटगतस्तदा // 31 // सर्वगिलोऽपि पृष्ठस्थस्तेषां सपदि नृत्तवान् / दर्श दर्श च तत्सर्वे व्यस्मयन्त नृपादयः॥३२।। चतुर्भिरपि नृत्यद्भिस्तैरेकैकः पुनः पुनः। पादोऽवदत् झंझाख्यायाश्छन्दोजातेरगीयत // 33 // चरित्रम् तथाहि जिणि जगु जगडिउ सुइ-मई विनडिउ कप्पडियह दुहु माइहिं फेडिउ / सुइविग्गुत्तउ जिणहउं घट्ठउ घणलियं तह थोडउ | सर्वगिललो11८२।। नहर // 34 // अथ राजाऽवदत् यूयं कुतो नृत्यथ गायथ / अस्मानपि रसस्याऽस्याऽभ्यन्तरान् कुरुत द्रुतम् / / 35 // भ्रसंज्ञापूर्वमादिष्टो cles भनन्द्योः राज्ञा स्वदेलास्यैकव्यग्रया तया। मूलान्मुञ्जः कथामेनां कथयामास भूपतेः॥३६।। अथ वेश्याऽवदद् देव ! मया विश्वैकवञ्चकः / धूत्तों जित- | शानिष्कास्तत् नृत्यामि गायामि च मुहुर्मुहुः // 37 // भूभृत्पृष्टोऽब्रवीन्मुञ्जो धूर्त्तग्रस्तानि सर्वथा / मया लब्धानि रत्नानि नृत्यते गीयते च शनं कृतम् | तत् / / 38 // नृपोक्तो लोभनन्द्यूचे तथा येनाऽस्मि वञ्चितः / सोऽप्येवं धर्पितो नृत्यगीते तन्मे मुदानया // 39 / / अन्ये नृत्यन्तु गायन्तु सं त्वेवं किं व्यवस्यसि ? / इति भूभृदधिक्षिप्तः क्षिप्रं सर्वगिलोऽभ्यधात // 40 // गतानुगतिकत्वेन वैलक्ष्यस्थगनाय च / नृत्यगीतaoप्रवृतिम को हर्षावसरः पुनः॥४१॥ हर्षोऽपि वा वसन्तश्रीबुद्ध्याधिक्योद्भवोऽस्ति मे। श्लाघ्यः सम्यक् प्रहारो हि मर्माविदऽपि वैरिणः // 42 // सन्मान्याऽथ वसन्तश्रीमुञ्जौ राजा यथोचितम् / दण्डपासिकमाकार्य साक्षेपमिदमादिशत् / / 43 / / अरे सर्वगिलो विप्रो य एवं वञ्चकाग्रणीः / वणिक् च लोभनन्द्याख्यो दृष्टदोषः पुराऽपि यः॥४४॥ ताविमौ लोकसौस्थाय सद्यो निर्विषयौ कुरु। एको सर्ग-३ ब्राह्मण इत्यन्यस्त्ववध्यः सुमतेगिरा // 45 / / अथास्मिन् साधिते तेन शासने देवनन्दिनम् / आकार्य निःस्पृह इति नृप एवमुपारुधत् | | // 46 // कोशागारिकतां श्रेष्ठिन्नधिकारं गृहाण मे / सोब्रवीद् व्रतमादास्ये स्वामिस्तत्किमनेन मे? // 47 // किञ्च-चलं पताकाञ्च // 82 // लवद् विषवन्मुखमञ्जुलम् / शाकिनीमत्रवत्पापं कोऽधिकारं न निन्दति ? // 48 // प्रत्यक्षं वीक्ष्य कुन्दस्य दुर्मतेलोभनन्दिनः।