________________ // 8 // सर्वृगिलधूत्तत्वनिश्चयो राज्ञाकृतः | वसन्तश्रीन शक्यते / मरिचानि न पार्यन्ते चर्वितुं चणका इव // 12 // अनर्गलं गिलित्वा यजगजरितवानसि / तत्त्वामुद्गालयाम्यद्य * सद्योऽहं रसिकाऽखिलम् // 13 // अरे चेट्यो दुरात्मानमेनमन्यायकारिणम् / नयध्वं राजकुलमित्युक्त्वा तमुदपाटयत् // 14 // कौतुका तुमुलैलोंकैदृश्यमानः पदे पदे / विलक्ष्योऽशरणो निन्ये चेटिभिश्चत्वरेण सः॥१५॥ प्रेष्यैरुत्पाटिताः पेटा मुझं चादाय पृण्ठगा। चचाल गणिका विष्वगावृता कौतुकाजनैः / / 16 / / दृष्ट्वा सपनं तादृक्षव्यसने पतितं द्विजम् / हट्टादुत्थाय हृष्टस्तमन्वगाल्लोभनन्द्यपि // 17 / / अथ राजकुले गत्वा पूत्कृत्याऽन्यायविप्लवम् / प्रदर्य पटुधीः पेटाः मापं साक्षेपमभ्यधात् // 18 // न धर्मविप्लवः क्वापि त्वयि शासति मेदिनीम् / उदिते पूष्णि पुष्णाति तमःस्तोमः किमुद्गमम् ? // 19 // न्यासीकृतानि पेटासु मया यात्राचिकीर्षया / रत्नान्यपास्य धूत्तोऽयं हताशो न्यास्थदश्मनः // 20 // कुर्यात्सोऽन्यत्र किं ? यस्त्वत्पुरेऽप्येवं व्यवस्यति / ग्रामे मुष्णाति यस्त्राणशून्येऽ- | रण्येऽस्य का कथा ? // 21 // महीं शासत्सु भूपेषु पत्तनेषु वसत्सु च / हा धिक् दुरात्मभिर्दूतैरनाथं मुष्यते जगत् // 22 // स्वामिबनेन प्रत्यक्षतस्करेण हृतानि तत् / न्यासीकृतानि मे पञ्चरत्नलक्षाणि दापय / / 23 / / उक्तंच-दुर्बलानामनाथानां बालवृद्धतपखिनाम् / | अनार्यः परिभृतानां सर्वेषां पार्थिवो गतिः // 24 // नृपोऽवादीदरे पाप! किमु व्यवसितं त्वया / स स्माह नाऽहं रत्नानि गृहीत्वा दृषदो न्यधाम् // 25 // यथानयाऽर्पिताः पेटास्तथा प्रत्यर्पिता मया / ततोऽत्र पापं मे किञ्चिन्नोद्भावयितुमर्हथ // 26 / / नृपोऽभ्यधात् | | क ईदृक्षपेटासु ग्रावसंचयान् / न्यासीकुर्यात् ततोऽकार्षीस्त्वमेवान विपर्ययम् // 27 / / निक्षिपेद्वा कुतश्चित्तत् खं संभाल्याग्रहीन किम् ? / प्रमादानीतिमुत्क्रम्य तत्स्वयं हीनवाद्यऽसि // 28 // इत्थं निःपक्षपातेन निीते भूभुजा स्वयम् / सभ्यश्चानुमते सद्यो द्विजे | जाते निरुत्तरे // 29 // जय जीव चिरं स्वामिन्नित्युक्त्वोत्थाय तत्क्षणम् / ननत हर्षादास्थाने वसन्तश्रीमनोहरम् // 30 // अथ मुञ्ज // 8 //