________________ श्रीअमम // 30 // at | त्यजीवेव यचक्रे पद्मिनी हिमैः // 23 // स्फोरस्तुपारैः कर्मीराः समीरास्तुहिनाद्रिजाः / अवीवदन् दन्तवीणां दरिद्रान् यत्र रात्रिषु // जिन॥२४॥ अन्येद्युः पतति स्फीते शीते श्रेष्ठी जनैर्वृतः / ललिताङ्गः सौधमूनि न्यषीदत्सेवितुं रविम् // 25 // पुरासन्नं सरो दृष्ट्वा स प्रोचे चरित्रम् कोऽपि भोः क्षपाम् / सामाकण्ठमनोऽस्मिस्तिष्टेत्सरसि शीतले // 26 // उवाच चन्दनः श्रेष्ठिन् ? यस्तिष्टेल्लभते स किम् / अविलक्षोहस्तिनापुरे श्रीललिलक्षमिति प्रत्यूचे ललितोऽप्यथ // 27 // स्थास्यामि रात्रौ तद्यद्य सरसीति प्रतिश्रवम् / कृत्वाऽगाच्चन्दनश्चक्रे तथेत्यहह निःस्वता // ताङ्गवेष्ठि // 28 // एत्याविग्रहः प्रातः स तं लक्षमयाचत / अदित्सुरितरोऽप्यूचे कोत्र साक्षी ननूच्यताम् // 29 // जीणोऽवादीदेह एव साक्षी | मे जलपीडितः / नवेनोचे वपुर्यामेनापि पीड्येत वारिणा // 30 // मद्यामिकैविना किं च स्थितस्य तव को ननु / विश्वस्यादिति तेनैवमाक्षिप्तश्चन्दनोऽवदत् // 31 // सकर्णाकर्णय श्रेष्ठिस्तर्हि व प्रत्ययान्तरम् / ज्वलन् रात्रौ चतुर्यामी दीपोऽस्थात् ते शिरोगृहे | // 32 // स्मिखोचे ललिताङ्गो हुं ज्ञातं न्यगमयः क्षपाम् / विनीतःस्फीतशीतातिवलद्दीपानलार्चिषा // 33 // छन्दानुवर्तिभिः सभ्यैर्व* चनेऽस्य समर्थिते / द्विधा विलक्षः सहसोत्थायागाचन्दनो गृहम् // 34 // तत्रास्थानिश्वसन् दीर्घ पतितो जीर्णमश्चके / स तथा ||sk नोदवासाा निकाराा यथार्दितः // 35 // लीलाबत्या स दृष्टश्च पृष्टः कष्टस्य कारणम् / आचख्यौ मूलतः सर्व प्रतीकारक्षमा हि सा // 36 // साध्वदत् तात ! मा ताम्य विद्धि लक्षं स्वहस्तगम् / क इवायं मयारब्धः स्तब्धोऽपि मृदुतां गमी // 37 // किन्त्वनेन समं सम्यक् वर्तेथाः पूर्ववत् पितः / अभिन्नमुखरागस्वं खं निकारमलक्षयत् / / 38 // इत्युक्त्वोत्थाप्य क्लस्वा चोपचारांश्चन्दनस्तया। | पटूकृतः स्वकार्यार्थी ललिताङ्गमसेवत // 39 // कालो दुर्जनवल्लोकभीष्मो ग्रीष्मोऽन्यदाऽऽययौ / कुर्वन् विश्लेषमन्योन्यं प्रियैरपि | निजः समम् // 40 // शङ्के तृषाचो यत्राकोऽप्युा एव रसान्न हि / आकृष्यापाद् देहिदेहादपि स्वेदच्छलात्करैः॥४१॥ जनं यत्राग्नि | // 30 //