________________ श्रीअमम // 20 // जिनचरित्रम् पुनर्वधार्थ प्रेषणे लेखान्यथाकरणम् |स्म स्मारोपास्ति वरार्थिनी // 48 // गवाक्षे वीक्षते स्माऽथ सुप्तं दामन्दकं विषा / बहिं किमद्य कामोऽयमिति सन्देहदायिनम् // 49 // | अत्रत्यालोकनाप्राप्तप्रत्यूहं सस्पृहं तया / आसेवनतयाऽत्यक्तपौनरुक्त्यं विलोकितः॥५०॥क्षणं हृदि क्षणं कण्ठे क्षणमौष्ठे क्षणं मुखे। विश्रब्धं तत्तनौ तस्याश्चक्षुश्चिक्रीड डिम्भवत् // 51 // सर्वाङ्गीणेन तस्योचर्माधुर्येण चमत्कृता / मूर्धानमधुनोत्कामबाणहृदि हतेव सा // 52 // चिरदृष्टो नवोद्भिन्नश्मश्रुर्मांसलविग्रहः। तदाऽन्यत्वमिवापन्नः स तया नोपलक्षितः // 53 // दध्यौ च बाह्यनेपथ्यनिरपेक्षमकृत्रिमम् / अहो सर्वाखवस्थासु रूपमस्य मनोहरम् // 54 // मनां लावण्यपंकेऽस्य नोद्धत्तुं दृग्गवीं क्षमे / प्रेमपाशववन्धेष व्याधवन्मन्मनोमृगम् // 55 / / अध्वोत्थानः श्रमस्वेदबिन्दुभिर्बद्धजालकैः / अचिरागतसुप्तोऽयमध्वन्य इव लक्ष्यते // 56 / / याक्तागु भवत्वे|पोऽलं कुलाद्यैश्च किन्तु मे / भर्ताऽयमेव यत्प्रेम न निमित्तमपेक्षते // 57 / / पाञ्चालिकेयोपस्तम्भ निश्चलानिमिषा विषा। स्थिताद्राक्षीदथैतस्य ग्रन्थि वसनपल्लवे / / 58 / / कौतुकाच्छोटयामास यावत्तावदुदैवत / लेखं निजपितृभातृनामाकं पक्षयोद्वयोः / / 59 / / दक्षा पितृलिपि ज्ञात्वा किं ? स्यादिति कुतूहलात् / लेखमुद्वेष्टयामास वाचयामास चेति सा // 60 // स्वस्तिगोकुलान्स्वर्गादिव ख| वृषांकतः। समुद्रदत्तो नित्योद्यन्महे राजगृहे पुरे // 61 // सुतं सागरदत्ताख्यं महतां धुरि संस्थितम् / सानन्दं निर्दिशत्येवं यथा | कुशलिनो वयम् // 62 // कार्य च पुरुषस्यास्य लेखपाणेरुपेयुषः। अधौतपादस्य विषं त्वया देयं कथञ्चन // 63 // विकल्पं वा विलम्बो वा मात्र पुत्र ! करिष्यसि / सिद्धकार्योऽहमप्येष श्व ऐष्याम्यचिरादिति // 64 // दध्यौ विभाव्य लेखार्थ विषादाद्रुदती विषा। हा तात ! वार्द्धकाजातः कस्ते मतिविपर्ययः॥६५॥ नृशंस ! शंस किं कार्य नृरत्नं जिघांसतः / विरलास्ताः स्त्रियः पुत्रमीदृक्षं जनयन्ति याः // 66 // अदीदपद्विषं तातो भक्तो भ्राता // 20 //