________________ शुद्धं धर्म तयाऽर्पितम् // 37 // सार्थनाथः पुरं तत्र सुंदरं निरमीमपत् / महेभ्यैरेत्य यत्रोषे स्वयं तेनैव रक्षिते // 38 // अत्र भैम्या * सहस्राद्धं यत्प्राबोध्यंत तापसाः। पुरं तत्तापसपुरमित्यतः पप्रथे भुवि // 39 // तन्मध्ये शान्तिनाथस्य चैत्यं स्वर्णमणीमयम् / पुण्य- // 251 // राशिमिव स्वस्यात्युन्नतं स व्यदीधपत् // 40 // ते सर्वे तापसाः सार्थवाहस्तत्र जनैः सह / द्वेधा व्यगमयन् कालमर्हद्धर्मपरायणाः // 41 // निशार्द्धसमयेऽन्येद्युस्तस्यैव शिखरे गिरेः / सिंहकेशरिणः साधोरुदपद्यत केवलम् // 42 // तत्राऽऽजग्मुदिविषदः कत्तुं तत्केवलोत्सवम् / कुर्वन्तो मर्त्यभूमेः स्वैर्यानीराजनामिव // 43 // दृष्ट्वा तैः कृतमुद्योताद्वैतं भीमनृपात्मजा / आकर्ण्य हर्षतुमुलं जन| थोत्पश्यतां दधौ // 44 // दवदंती च दंतीन्द्रोन्नतं तं पर्वतं तदा / आरुक्षत् गुरुवल्लोकैस्तापसैश्च समन्विता // 45 // विधिवत्तत्र साऽनंसीत्कर्मशैलाऽशनि मुनिम् / दृष्ट्वा देवैः कृतं चास्य महिमानममोदत // 46 // तस्य साधोर्गुरुश्चाऽऽगाद्यशोभद्राभिधः स्वयम् / तं च केवलिनं शिष्यमप्यवंदत भक्तितः।।४७॥ स सरिर्दवदंत्यादिजनश्चाथ मुनेः पुरः / न्यपीदद्विदधे सोऽपि कारुण्याद्देशनामिति IRTI48 // प्राप्य मावनि रत्नखानिवदुर्लभां जनाः / गृहीत तवरत्नानि नव दौर्गत्यविच्छिदे // 49 / / जीवाजीवपुण्यपापाश्रवसं वरनिर्जराः / बंधो मोक्षश्चेत्यमूनि परीक्षध्वं गुरोगिरा // 50 // सच्चक्रवर्तितामेभिर्निधानैरिव हस्तगैः / एकांतपत्रां कृतिनो लभंते ज परत्र च // 51 // चित्रं चैषां रुचेरेव श्रुतज्ञान विज़म्भते / सर्वैकदेशचारित्रं ततोऽपि स्याद्विवेकिनाम् // 52 // तेजोरत्नत्रयाद| स्मात किंचित्केवलमक्षयम् / जायते तद्यतः स्युस्ते शाश्वतानंदशालिनः // 53 // धर्मस्य तत्वं सम्यानामुपदिश्येति केवली। ऊचे-/ कुलपतिं भैमीवाचि संदिग्धमानसम् // 54 // धर्मों व्याख्यायि यः प्राक् ते वैदा निश्चितार्थया / स नान्यथाऽन्यथाकारं न जैना ब्रुवते यतः॥५५॥ रक्षन्ती चौरतः सार्थ वृष्टिकष्टाच्च तापसान् / प्रारदृष्टप्रत्यया चेयं तव सार्थपतेरपि // 56 // भैम्या निःसंशयं धम्मों तापसपरपार्श्वे पर्वते जातकेवलिकृतादेश| नायां सकुलपति भैम्या गमनम् // 25 //