________________ // 247|| काकिनी कांतां विश्वस्तां मुचतो वने / स्वस्मानालजि चेच्चित्रं व्यूढौ ते चरणौ कथम् // 64 // हस्तग्राहं मिथो बद्धांचलं वेद्यो जना| अतः / समं भ्रामं त्वयाऽऽहं किं ? स्वीकार्याऽनार्य ! वर्जिता // 65 // अथाभिमानाच्छ्वशुरकुलं नेच्छसि मां ततः। वने किमेकाममुचः | वस्त्रलिखि| सतीमपि विचारय // 66 // अनुरक्तां च भक्तां च मां संध्यामिव मुंचतः। भानोरिवाभिमानोऽपि तव दोषागमे कुतः // 67 // त्या- ताक्षरदर्शने गोपि परमागो मे त्वत्कृतस्ते त्वभूत्ततः। राज्यभ्रष्टो नलो भर्तमशकन्नोदरद्वयम् // 68 // आदाय स्वोदरं क्वापि निःशको रंकवद् कुण्डिनपुरद्रुतम् / गतो न ज्ञायते पाप इत्यकीतिर्जनेऽक्षया // 69 // युग्मम् // तवाऽश्लाघामयी सेयं कथा पुस्तकवर्तिनी। आसंसारं भवित्रीति मार्गे | मम दुःखायते प्रिय ! // 70 // त्वयि मानापमानाभ्यां द्वैधीभावं गतः प्रियः / पक्कवालुंकवद्याहि हृदय ! / ख तु मृत्युना // 7 // पि गमनम् तृभ्यां नलमारोप्य मुक्ता या वल्लिवन्मम / अबलाच्च ततः पाते विवरं देहि काश्यपि ! // 72 // दवदंत्या रुदत्येवं शाखिनोऽश्रुजलै-* स्तदा / संसिच्य शिक्षितास्तेऽपि तुषाराश्रर्यथाऽरुदन् // 73 // वनदेव्योऽपि संक्रान्ततहुःखादितचेतसः। पक्षिकोलाहलव्याजादाक्रKalन्दानिव चक्रिरे // 74 // भ्राम्यन्ती साऽथ वस्त्रांते वर्णान्दृष्ट्वाऽनुवाच्य च / दध्यौ हृष्टा ध्रुवं भर्तुरिष्टाऽस्म्येवं यदादिशत् // 7 // दीर्घदर्शी ददर्शासौ सौख्यं मे तातमन्दिरे। दौस्थ्यस्त्रीपुंसयोर्मानम्लान्य हि श्वशुराश्रयः // 76 / / पतिरेव गुरुः स्त्रीणामित्याज्ञां तस्य मेऽधुना / कुर्वत्याः स्याद् ध्रुवं भद्रमत्राएत्र च निश्चितम् // 77 // विमृश्येत्यलगञ्चेतोनिलयेन नलेन सा / आदिष्टे पथि तहुटस्पष्टकष्टविघातिना // 78 // त्रिभि०॥ स्थलांभोजश्रियोस्तस्याः पदयोः शीलमंत्रतः / स्तंभिताऽऽस्यविपज्वालाले लैरिवाजनि // 79 // तस्याः प्रभाव को वक्तुमलमासीत्तदा पथि / विरोधिनोऽपि यद् व्याघ्रास्तद्वीभिः शमं ययुः // 80 // बभूवे पथि दंताग्र- // 247 // न्यस्तहस्तैश्च हस्तिभिः / आकर्ण्य तस्या हुंकारान् मेध्याधारावानिव // 81 // एवं दवानलाधैरप्यसावध्वन्युपद्रवैः। नोपादावि