________________ वोपरि। छत्रं दधाना कनकवत्या // 217 // त्यापि वेत्रिणीज्ञप्तान् पुस्ता यथाऽब्जिनी // 200 // सा रतिमात्तमिवोपरि। छत्रं दधाना कनकवत्याऽऽगात्तत्र निर्मलम् / / 97 // पं० कु०॥ दृष्टयाऽपि तया कादंबिन्येवामृतरूपया। किं किं केकिवदाचेष्टि ? नोत्सुकैस्तत्र पार्थिवैः॥९८॥ कन्याऽपि वेत्रिणीज्ञप्तान वुर्घस्तत्र भूभुजः। अन्वग्रहीद् दृशा चन्द्रलेखेव कनकवतीकुमुदाकरान् // 99 / / परं चित्रपटे दृत्ये दृष्टमिष्टं यदृवहम् / अपश्यन्ती तत्र साऽगान् म्लानिं सायं यथाऽब्जिनी // 200 // सा प्राथेनया विषण्णा सखीहस्तन्यस्तदेहभरा चिरम् / चिन्तानिःप्यन्दनेत्राऽथ पाञ्चालीव स्थितिं व्यधात् // 1 // वदोपाशंकिनोऽभूवन राजा * श्रीदेन वसु देवे प्रकनोऽप्यथ तद्विधाः / सख्युचे तां वृणीष्वाशु कश्चित् किमु विलम्बसे? // 2 // ऊचे नृपसुता भाग्यैनष्टं मे सखि सम्प्रति / तत्सार्थेन | टीकृते ममेष्टोऽपि नष्टो नूनं वरो वरः॥३॥ यतो न दृश्यते सोत्र तदन्यं कं वृणोमि तत् / योपितां हि वरं मृत्युनत्वनिष्टसमागमः // 4 // | तत्कण्ठे किं च मे हृदयं वज्रदलैर्मन्ये विनिर्मितम् / यदभीष्टे जने नष्टेऽप्याशु न तद्विदीर्यते // 5 / / सख्यूचे देवि मा ताम्य सम्यगीक्षव वरमालाक्षेमंडपम / अत्र प्रविष्टस्तेऽभीष्टः प्रतिज्ञेयं ममाचला / / 6 / / परं स नर्मणाच्छन्नोऽभवदीपधिकर्मणा / भवेत्कृतो वा श्रीदेन देवाः केलि पणे जाते प्रिया यतः॥७॥ कन्याऽपि धैर्यमालम्ब्य भूयः प्रैक्षिष्ट मण्डपम् / दृष्ट्वा श्रीदद्वयं दध्यौ लोके लोकोत्तरेऽपि च // 8 // एक एव श्रुत: ale लग्ने श्रीद कृता सुवश्रीदस्तदनेन मम प्रियः। प्राप्य खरुपता च्छन्नः कृतः प्राोऽयमेव तत् // 9 // विचिन्त्येत्युपसृत्याशु प्रणम्य च निधीश्वरम / एवं र्णवृष्टिः | व्यजिज्ञपहीना रुदती रचिताञ्जलिः // 10 // त्रिभिवि०॥ देव प्राग्जन्मपत्नीति मयि नोचित न ते / यन्मानुपीषु त्वादृक्षाः सुराः स्युव रागिणः // 11 // तत्प्रसीद तिरोधानीमपनीयाशु तद्वरम् / प्रत्यक्षं कुरु नो हास्यं शोभते भोजनक्षणे // 12 // मुद्रा कुबेरकांता| ख्यामपाकतुं ततः करात् / श्रीदः मित्वाऽऽदिशदुन्दुं सतां नर्म चिराय न // 13 // तत्क्षणादूमिकां त्यक्त्वा समुद्रविजयानुजः / समुद्र // 217 // | इव लेभे खां प्रकृति जननन्दिनीम् // 14 // प्रेक्ष्य शौरि स्वरुपस्थं रोहिणीव सुधाकरम् / साऽभृद् व्यक्तप्रमोदैव स्फुरद्रोमाङ्करच्छ