________________ श्रीअमम // 198 // वेगवतीति सः / आत्ततोऽविशत् कोपगृह कोपेन साऽप्यथ // 43 // दग्ध्वा तदा तदावासं जहे त्रिशिखरप्रिया / वार्ष्णेयं मदनवेगारूपा || सूर्पणखी हठात् // 44 // वसुदेवस्तया व्योम्नो मुक्तो वैराजिघांसया / पपात तृणपुञ्जस्योपरि राजगृहान्तिके // 45 // गीयमानं जरासन्धं थुखा ज्ञात्वाऽस्य पत्तनम् / गत्वा द्यूत्वा स्वर्णकोटिं जित्वाऽर्थिभ्यः स दत्तवान् // 46 // पूर्व संकेतितै राज्ञा बद्धाऽऽरक्षभटैस्ततः / निन्ये | राजकुलं शौरिनिर्भीः शुचितया हृदि // 47 // बद्धो निरपराधोऽहं भोः किमेत्यमुनोदिते / तेऽशंसन ज्ञानिनाऽऽचख्ये जरासन्धस्य | केनचित् // 48 // प्रगे जित्वा स्वर्णकोटि द्यूतेऽर्थिभ्यः प्रदास्यति / यस्तस्य पुत्रस्ते राजन् ! वधको नात्र संशयः॥४९॥ राजादेशादतः साधुरपि त्वं भद्र ! मार्यसे / परप्राणेनिंजप्राणत्राणे हि कृतिनो नृपाः // 50 // त्रि०वि०॥ उक्त्वेति शौरिं भवान्तः क्षिप्वा च्छन्न जिघांसवः / तेऽद्रेरलोठयन् रक्ष्योऽपवादो ह्यात्मवन्नपैः / / 5 / / वेगवत्यास्तदा धाच्या दृष्टा सोऽग्राहि दैवतः। विपत्सु रक्ष्यते पुण्यैरेव स्वानुचरैर्नरः // 52 // मन्ये नीयेऽहमप्यद्य भारुण्डैश्चारुदत्तवत् / नीयमानः स भ्रस्वास्थस्तया व्योम्नीति चिन्तयन् // 53 // एकत्र | पर्वते मुक्तः क्षुद्रच्छिद्रेस्तु चक्षुषा / पदद्वयं वेगवत्याः स प्रियाया व्यलोकयत् // 54 // युग्मम् / / दुन्दुस्तदुपलक्ष्याशु भत्रां दीर्चा | | विनिययौ / सुदती रुदती नाथ नाथेत्येतां च सस्वजे // 55 // सोप्राक्षीच्च मृगाक्षीं तां लब्धः कथमहं ? त्वया / उन्मृज्य नेत्रे सास्र साऽपीत्याचख्यौ कृताञ्जलिः // 56 // तदा भाग्यपरावृत्या तल्पादुत्थितया मया / स्वामिंस्तत्र न दृष्टस्त्वं दृष्टिकैरविणीविधुः॥५७।।। करुणं मे रुदत्याश्च समन्ततः पुरीजनैः / हरणं तेऽद्रिपातश्च प्रज्ञप्त्याऽऽख्यायि विद्यया // 58 // अजानानाऽतःपरं तु व्यमृशं यत्प्रियो मम / मुनेः कस्यापि पार्श्वेऽस्ति विद्याऽख्यान्नास्य शक्तितः // 59 // अतीत्य कालं कमपि त्वद्वियोगार्तितस्ततः / कोकीव कोकं | * त्वां द्रष्टुं विश्वेऽभ्राम्यं नृपाज्ञया // 60 // सिद्धचैत्ये त्वामपश्यं सार्द्ध मदनवेगया / तस्माच प्राप्तममृतधारेऽनुप्राप्तवत्यहम् // 61 // तत्र जिनचरित्रम् सूर्पणखीहृतवसुदेवस्य राजगृहे पाते वधार्थ पर्वताद् लोठने वेगवतीधाच्या ग्रहणम् सर्ग-५ // 198 //