________________ नगरे श्रीअमम- शंखरवैर्ययोः। गोष्ठेषु दोहकैः पान्थाघोषणेव विधीयते // 19 // तयोः कदाचन प्रत्यासन्नशाद्वलनहलान् / घुर्घरायितदुर्वारद्वारसं- जिन चारिमण्डलान् // 20 // उत्फालदुर्ग्रहोत्तालोत्पुच्छवत्सतरव्रजान् / क्षीरपाणपीवलोकान्निजान् संपश्यतोबजान् // 21 // मेघसिक्तेषु चरित्रम् // 8 // | सीराग्रोल्लिखितक्ष्मासुगन्धिषु / विष्वक् लहलहद्धान्यपल्लवोल्लासिदृष्टिसु // 22 // सहर्षकर्षकस्त्रैणगीतिकातुमुलेषु च / क्षेत्रेषु लक्ष्मीक्षे- प्रथमभवे hol षु कदाचिद् गच्छतोः सुखम् // 23 // कदापि स्थविरारब्धप्राक्कथासु सभासु च / आसीनयोः सुखं कोऽपि ययौ कालो मुहूर्तवत् |कुशस्थल॥२४॥ पश्चभिः कुलकम् / अवादीदेकदा चन्द्रः शूरमक्रूरमानसः / सहोदरं दरदलत्कर्पूरद्युतिदन्तरुक् // 25 // वत्स ! स्वकुलगृह्यासु || CIo . तासु तास्वपि वृत्तिषु / कृषिरेवावयोरिष्टा विचित्रा हि रुचिर्नृणाम् // 26 // अपारतन्त्र्येणोपात्ता कामधुक सर्वतोमुखी / समूलकाषं वर्णनम् | कपति कृपिरेका दरिद्रताम् // 27 / / किंच वार्ताविदां संप्रदायोऽयं माघमासि यत् / कर्षकैः संस्कृता सूते भूमिः स्वर्णमयं फलम् / // 28 // तद्योक्त्रय शतांगं त्वं गत्वा क्षेत्रेष्वनागतम् / कान्तिकैः कारयावो येन तत्परिकर्मणाम् // 29 // यदादिशत्यार्य इतिशूरोऽप्युत्थाय भक्तिमान् / तथा चक्रे प्रतस्थाते शकटस्थावुभावपि ॥३०॥कियन्तमप्यतिक्रम्य पन्थानमथ तो पुरः। अपश्यतामा| खुकालयामिनी मन्दगामिनीम् // 31 // अभङ्गमङ्गलगृहद्वाररोधमहार्गलाम् / दुनिमित्तकुम्भिशुण्डां चकंलुण्डा महोरगीम् // 32 // | युग्मम् // अथो सकरुणो चन्द्रः शूरं सारथिमब्रवीत् / उत्पश्यः पश्य पश्यत्वं वत्स ! स्वच्छमतेऽद्भुतम् // 33 // कजलश्यामला वेणी लतेव क्षितियोषितः / वराकी लोलति कथं भुजङ्गीयं पुरः पथि // 34 // आः पादशब्दवित्रासेप्यलसत्वविसंस्थुलाम् / गतिमाविभ्रती | यान्त्यप्यसौ तत्रैव दृश्यते // 35 // तदाऽऽयुष्यमन्निमां रक्ष मे वचनं कुरु / देशं नयैनं वामेन शकटं दक्षिणेन वा // 36 // तया | तच्चन्द्रवचनं सुधारससहोदरम् / अश्रावि सम्यक् दृक्श्रुत्या मनसैवमचिन्ति च // 37 // अहो बन्धुरसम्बन्धो मित्रं मे निनिमि // 8 //