________________ // 187 // मत्रानुद्धृत्य निर्ममे / वेदोऽथर्वा पिप्पलादेनास्योत्पत्तिरथोच्यते // 3 // तद्यथाऽऽस्तां काशिपुर्यां परिव्राजावुभे पुरा / सुभद्रामुलसानाम्न्यौ खसारौ विदुषीतमे // 37 // बहुशिष्यावृते ते च वेदवेदां| गपारगे। तर्कस्वागमनिष्णाते रेजाते ब्रह्ममूत्तिवत् // 38 // वादिनो बहवस्ताभ्यां तस्यां पुरि विजिग्यिरे। परिबाडागमद् याज्ञवल्क्यो | वादार्थमन्यदा // 39 // जितेन जेतुर्दासत्वं कर्त्तव्यमिति संश्रवम् / विधाय सुलसा तेन जित्वा दासीकृताऽऽत्मनः // 40 // तया तरु| ण्या शुश्रूपमाणया तरुणोऽथ सः / कामं कामस्य वश्योऽभूदऽजितेन्द्रियता हहा // 41 // वसन् पुरीपरिसरे निजने विपिने सुखम / | शिखण्डिनीमिवोन्मत्तां तां सिपेवे शिखीव सः // 42 // क्रमाजज्ञे तयोर्सनु भीतौ लोकापवादतः। तौ तं मुक्त्वा पिप्पलाधो जातमात्र प्रणेशतः // 43 // आगात्सुभद्रा ज्ञात्वा तत्तत्रास्ये पतितं स्वयम् / अदन्तं पिप्पलफलं तमादत्त च बालकम् // 44 // सा पिप्पलाद इत्यस्य सान्वयं नाम निर्ममे / मया गंगातटे दृष्ट इति प्राकाशयजने // 45 // संवद्ध्य यत्नाद् वेदादिशास्त्राब्धेस्तं पारगम / सा चक्रे चापलेनास्योद्वेजिता चान्यदाऽवदत् // 46 / / किं मां सन्तापयसि ? रेऽन्यजातोऽपि दुराशयः / सम्भ्रान्तः सोऽपि तामूचे मातः कस्याः सुतोऽस्म्यहम् // 47 // यथातथे तया ख्याते सुलसायाज्ञवल्क्ययोः / स्वपित्रोरुपरि क्रुद्धोऽथर्ववेदं स निर्ममे // 48 // सोऽतिप्राज्ञो | महाविद्वानासीद् वादिमदापहः / तं जेतुं सुलसायाज्ञवल्क्यौ वादार्थमेयतुः // 49 // विजिग्ये पिप्पलादस्तौ ज्ञात्वा स्वपितरावथ / चोक्रुधीति म ताभ्यां यदेताभ्यामहमुज्झितः॥५०॥ पर्वताजातयोः प्राक् तौस मातृपितृमेधयोः / यज्ञयोरवधीद् धर्म प्रख्याप्य पितरौ जने // 51 // शिष्योऽहं पिप्पलादस्य मखान् वाडूलिनामकः / निर्माप्य पशुमेधादीनगमं नरके तदा // 52 // उबृत्तो नरकात् पश्चकृखोऽभूवमहं पशुः / हतश्च पौनःपुन्येन मखे रैद्विजातिभिः // 53 // ततोऽजः टंकणे देशेऽभूवं भूयोऽपि पापतः / वाहनं अर्थववेदकृत्पिप्पलादस्यो. त्पत्तिकथने मेपदेवेन प्रकाशिताः स्वीयपूर्वभवाः | // 187 //