________________ श्रीअमम // 186 // जिनचरित्रम् नारदोपायनिष्फलता यज्ञे भावितसगरहोमश्च | // 17 // अन्तःपुरे परीवारे पुरे च सगरस्य सः। विचक्रे दुस्तरान् रोगान् वैरेणाऽसुरपांसनः // 18 // प्रेरितः सगरोऽप्याजूहवल्लोकैश्चम- | स्कृतैः / पर्वतं सोऽपि शाण्डिल्याज्ञयाऽकापींच्च रुक्शमम् // 19 // सुरापाणं विधातव्यं सौत्रामण्यां विधानतः / गोसवाख्ये ऋतौ श्रेष्ठम| गम्यागमनं तथा // 20 // वधो मातुर्मातृमेधे पितृमेधे पितुः पुनः / कर्तव्यो याज्ञिकर्मध्येवेदि स्याद् दुपणं नहि // 21 // आधाय कूर्मपृष्ठेऽग्निं हविषा तर्पयेद् द्विजः / उच्चार्य जुहास्यकाय स्वाहा मंत्र प्रयत्नवान् // 22 // असंप्राप्तौ तु कूर्मस्य शुद्धजातेर्द्विजन्मनः / अविक्रियस्य खलतेः सर्वांग पिंगलद्युतेः // 23 // शुचौ तौये मुखदध्ने तस्थुषः कूर्मरुपिणि / मस्तके ज्वालयित्वाऽग्निमाहुतिं प्रक्षिपेद् द्विजः // 24 // युग्मम् / / सर्व पुरुष एवेदं यद्भूतं यद्भविष्यति / ईशानो योऽमृतत्वस्य यदन्नेनातिरोहति // 25 // एवमेकत्र पुरुषो किं केनात्र विपाद्यते ? / कुरुध्वं स्वेच्छया यज्ञे ततः प्राणिनिपातनम् // 26 / / युग्मम् / / मांसस्य भक्षणं तेषां यज्ञे कार्य च याज्ञिकैः / पूतमेवेह तद् यस्माद् देवोद्देशेन निर्मितम् // 27 // इत्यादि सगरं तत्र प्रज्ञाप्याऽचीकरत्ततः / सान्तवेद्यां कुरुक्षेत्रादिषु चानेकशो मखान् | // 28 // स प्राप्तप्रसरो राजसूयादीनपि निर्ममे / यज्ञे हतान् विमानस्थान् महाकालोऽप्यदर्शयत् // 29 // मते स्थितः पर्वतस्य ततः सप्रत्ययो जनः / चक्रेऽस्तशंको निःशको यज्ञान् जीवविनाशनः // 30 // तत्प्रेक्ष्य नारदो विद्याधरमूचे दिवाकरम् / हर्तव्याः पशवो | यज्ञे समानीतास्त्वयाऽखिलाः // 31 // महाकालो महाकाल इव क्रुद्धोऽसुराधमः / अज्ञासीदऽवधेयज्ञे हरन्तं तं पशून् कुधीः // 32 // तद्विद्याप्रतिघाताय ऋपभप्रतिमां न्यधात् / स यज्ञेष्वसुरो गुप्तां व्यरंसीखेचरस्ततः // 33 // नारदपिरपि क्षीणोपायो ऽन्यत्र ययौ द्रुतम् / माययाऽभावयद् यज्ञेष्वसुरः सगरं ततः // 34 // सगरं सुलसायुक्तं हुत्वा यज्ञानलेऽन्यदा / महाकालः कृतकृत्यमन्योऽगादाश्रयं निजम् // 35 / / एवं महाकालबलात्पर्वतेन प्रवर्तिताः / जीवहिंसात्मका यज्ञा आद्रियन्त द्विजब्रुवैः॥३६।। इत्थं परम्परायातान् सर्ग-५ // 186 / /