________________ // 15 // नारीजन वल्लभता वसुदेवस्य निर्विकार क्रीडा च तकिं न ? // 63 // त्रि. वि०॥ उग्रोऽपि राजा तं चक्रे कुमारमविकारिणम् / स्वान्तःपुरदेशादावेकमप्यनिवारितम् // 64 // भानुः | | कुमुद्वतीं चन्द्रः पद्मिनी च करेर्मुहुः / स्पृशस्तस्य परस्त्रैणांगास्पृशोऽस्तु समं कथम् ? // 65|| स शीलाद्वल्लभो राज्ञो नित्यं मित्रा| दिभिः सह / उद्यानादिषु चिक्रीड द्विः कुर्वन् राजपाटिकाम् // 66 // तं पौरयोपितो यान्तमायान्तं च ससंभ्रमाः। द्रष्टुं त्यक्तान्यकर्तव्याः सुभगेशं दधाविरे // 67 / / त्यक्ताभरणभारा अप्येकास्तद्वीक्षणोत्सुकाः। अशक्ता धावितुं निन्दन्ति स्म श्रोणिस्तनं गुरु // 68 // त्रिजगन्मोहन रूपमस्य पश्यत धावत / एतैत तूर्णमित्यासीत् स्त्रीणां कोलाहलः पुरे // 69 // काश्चिन्नेत्रपथे रुद्धे लोकैरु- | चतरं श्रिताः। निर्भयाः किमु वा दुर्गमारूढानां स्मराचलम् / / 70 // कृत्वाऽलीकं कलकलं काश्चन स्वमदीदृशन् / उपायदर्शने चक्षु| स्तार्तीयं काम एव वा // 71 // विचित्रैककपालाश्चाऽनजितेकविलोचनाः। काश्चिद् व्यक्तैकवक्षोजा अर्धनारीश्वरश्रियः // 72 // अक्ष्णोर्लाक्षारसं वक्रेऽञ्जनं पाण्योश्च नू पुरे / न्यस्येयुः कंकणे चांघ्रयोः परास्तदर्शनोत्सुकाः // 73 / / यु०॥ मुग्धास्तदीक्षासम्भ्रान्तहृदोऽपत्यभ्रमाल्लघम् / आरोप्य मर्कटं कट्यामायान्त्योऽहासयन्न कम् ? // 74 // वैयावृत्यतपःकर्मकार्मणस्य विजृम्भितम् / कि? ब्रूमो येन नारीणां नव्यः सोऽभूत् क्षणे क्षणे // 75 / / किं ? बहूक्तैर्विस्मृताऽन्यकार्याः कामणिता इव / मंत्राकृष्टा इवाऽन्ववीयुर्वसुदेवं / सदा स्त्रियः // 76 / / आकृष्टसुरभूभृद्भिनेत्रैरनिमिषाः खियः / लावण्याब्धेस्तु न क्षोमे तस्यासन् कोटिशोप्यलम् // 7 // एवं समुद्र| विजयस्याऽनुजोऽप्यग्रजन्मवत् / क्रीडन्नस्खलितः स्वैरं कालं तत्राऽनयत्सुखम् // 78 // अन्येद्युः समवेत्याथ समेत्य च महाजनः / इत्थं | समुद्रविजयं रहो व्यज्ञपयन्नृपम् // 79 / / अस्ताघोऽपि कुलीनोऽपि स्वभावान्निर्मलोऽपि च / क्षीरनीरधिवदेव ! पुरे नारीजनोऽखिलः | Indlelin80 // रूपेण वसुदेवस्याऽकाले प्रलयकारिणा / मर्यादां त्याजितो भूमि लुम्पत्युत्कलिकाकुलः // 81 // युग्मम् // वासगेहान्तरालिख्य *******48***48398-*-* ||151 // BR-HE