________________ श्रीअमम जिन चरित्रम् // 148|| प्रतिवासुदेव जरासन्धोत्पत्ति कथनम् नाममुद्राद्वयान्विताम् / तां रत्नपूर्णा सा दास्याऽक्षेपयद्यमुनाम्भसि // 6 // आख्यच्च धारिणी राज्ञे जातमात्रं मृत सुतम् / तत्प्राकर्मनटै विनाट्य व्यक्तुमिवेरिता // 7 // इतश्च द्वारि मञ्जूषा निन्ये शौर्य पुरस्य सा / उपमात्रेव कालिन्द्या कृपयोत्संगसंगता // 8 // सुभद्राख्यो रसवणिक् प्रातः शौचाय चागतः। विलोक्य कांस्यपेटां तामाकृपत्सरितो बहिः // 9 / / नाममुद्राद्वयरत्नपत्रिकाभियुतं स च। बालं बालार्कवद्दीप्तं तस्यां वीक्ष्य विसिष्मिये // 10 // गृहीत्वा सह पेटायैस्तं नीत्वा च शिशु गृहे / निन्दोः स्वपत्न्याः पुत्रत्वेनाऽपयच्च वणिग्मुदा // 11 // अन्व● कंस इत्याख्यां चक्राते तस्य तौ मुदा / तनोवृद्धिं च दुग्धाधेरहो प्राक्तपसो महः // 12 // क्रीडन् कलहशीलोऽसौ प्रौढो डिम्भानपिट्टयत् / लोकाश्च तदुपालम्भैर्वणिजौ तावखेदयन् // 13 / / स ताभ्यां दशवर्षोऽथापितः सेवकदम्भतः। कुमारवसुदेवस्याऽभवद् बाढं च वल्लभः // 14 // सहैव दुन्दुनाऽध्यैष्ट बिम्बवत्सोऽखिलाः कलाः / सहैव रेमे लेभे च यौवनं रूपपावनम् // 15 // चूतनिम्बाविव समं सुधारसगराविव / सौम्यभोमाविबैकत्र संगतौ तौ विरेजतुः // 16 // इतश्च वसुराजेऽस्तंनीते देव्या तदंगजः / बृहद्ध्वजाख्यो दशमो नंष्ट्वा यो मथुरामगात् // 17 // क्रमाद् राजगृहे राज्यं स चक्रेऽस्य च सन्ततौ / अभूद् बृहद्रथ्ये नाम राजा प्रतिस्थो भुवि // 18 // जरासन्धस्तत्सुतोऽस्तराजसन्धोऽस्ति विक्रमः / प्रतिविष्णुरखण्डाज्ञस्त्रिखण्डभरताधिपः // 19 // आज्ञावशंवदीभृतभूतलक्ष्मापतिव्रजः / इत्यादिक्षत्स दूतेन समुद्रविजयं नृपम् // 20 // वैताठ्यशीलोपान्तस्थः श्रीसिंहपुरनायकम् / बद्धवा सिंहरथं भूपं सिंहरूपं समानय // 21 // दास्ये तद्वन्धकस्याहं स्वां जीवयशसं सुताम् / महद्धिक पुरं चैकं किञ्चिदिष्टं प्रसादतः // 22 // आदेश तं जरासन्धस्यातिदुःकरमप्यथ / कत्तु नत्वा श्रीसमुद्रविजयः प्रार्थि दुन्दुना 23 // वत्स ! वत्सतरस्येव दुग्धकण्ठस्य ते नहि / साम्प्रतं साम्प्रतं योद्धं कुमारा न्यग्मुखास्ततः // 24 // इत्युक्तोऽपि नृपेणैष स्वा सर्ग-४ // 148 //