________________ // 143 // नन्दिषणस्य वैयावृत्यतपः प्रतिज्ञा * // 11 // उत्तीर्णमोहपटलप्रसृत्वरविवेकदृक् / तचं तत्त्वतया पश्यन् स प्राविजिषत्तरम् // 12 // मुनिस्तु योग्यतां ज्ञात्वा नन्दिपे-* णमदीक्षत / एकादशांगी सोऽध्यैष्ट लब्धीश्च तपसाऽऽर्जयत् // 13 // षष्ठादीन्यतिकष्टानि तप्यमानस्तपांसि सः। मुनीनां दुःकरं किन्त्वित्यमाक्षीद गुरुमन्यदा // 14 // ग्लानादिषु वैयावृत्यं गुरुस्तस्मै सुदुःकरम् / अन्तरंगतपोभेदरूपमित्थमचीकथत् // 15 // | कथश्चिदपि चारित्रं श्रुतं च प्रतिपातुकम् / वेयावृत्योद्भवं पुण्यमगण्यमविनश्वरम् // 16 // कुर्यात्समाधि साधनां वैयावृत्येन यः। कृती। शालीनप्लेव शालीन स समाधि लभते चिरम् // 17 // अभ्यस्यन्ति श्रुतं केचित्तपस्यन्ति च केचन / परीषहोपसर्गाश्च सहन्ते। केपि साधवः // 18 // उपदेशप्रवचनैः प्रणुना अपि नेशते / वैयावृत्त्यस्थले किन्तु गन्तुं गलिवृषा इव // 19 // श्रुत्वेति नन्दिषेणः | प्राकमक्केशक्षयोन्मनाः / ग्लानादिषु वैयावृत्याऽभिग्रहं गाढमग्रहीत् // 20 // गच्छकार्येकधुर्यस्य वैयावृत्त्यस्थिरात्मनः। स्कन्धात्तस्योदतारीन यूपवजात कम्बली // 21 // वेयावृत्त्यव्रतात् तीक्ष्णखगधारासहोदरात् / प्राच्य बह्वच्छिनत्कर्मवनं सोमप्रसमनिः।।२२।। अन्यदाऽपाच्यलोकार्द्धपक्षपातात् पुरन्दरः / दध्यौ सम्प्रति कः ? साधुर्भारते तपसाधिकः // 23 // विज्ञायाऽवधिना नन्दिपेणं सर्वातिशायिनम / अस्तोकतोषतोऽस्तौषीदेवं देवसमे हरिः // 24 // कृतावधाना वचनं भो भोः शृणुत नाकिनः / सद्भतात्यद्भतगणश्लाघाडेवाकिनो मम // 25 // विश्वव्योमोत्तमजेनमतजीमूतमौक्तिकम् / लोकोत्तरतपोनिष्टालक्ष्मीसीमन्तताडनम् // 26 // वैयावृत्त्या ध्यवसायान्नन्दिषेणः सुरैरपि / शक्यश्चालयितुं नैव वात्याभिरिव मन्दरः॥२७॥ कश्चिदऽश्रद्दधदेवः शक्रवाचमचिन्तयत् / केयं सम्भा| वना गुर्वी ? मर्यकीटेप्यवस्तुनि // 28 // यद्वा स्वेच्छोक्तिसुभगं स्वच्छन्दाचरणोद्धरम् / उत्सृष्टार्थ जनाशंकं स्वाम्यमत्रापराध्यति // 29 // गखा ततः परीक्षे तं भारते मुनिमाक्षिपन् / ध्यात्वेत्यागाद् रत्नपुरं स्वर्गाद् वेगाद्दिवाश्रयः // 30 // ग्लानरूपं विकृत्यैक // 143 //