________________ // 135 // | तश्चिरं चित्ते चातुर्यादित्यचिन्तयत् / नूनमस्यामसावेणः संक्रान्तः परतो भ्रमन् // 58 // दृष्टस्तिरोहितोऽप्येष शीलया व्योमवीप्सया। मध्येऽम्भोधिपयःपूरान्तरितो मणिवन्मया // 59 // आकाशस्फटिकमयं शिलारत्नमिदं महत् / रम्यैरेवंविधै रत्नै रत्नगर्भा हि भूरऽ प्राप्तस्फटि क शिलाया |भत // 6 // बिभ्रती काञ्चनच्छायां शिलेयं वसुभृभुजः / सदा तेजस्विरत्नस्य योग्येतिकृतनिश्चयः // 61 // गखानुरहसं राज्ञे शिला-The |वेदीकारामाख्यत् स लुब्धकः / तामानाय्य नृपस्तस्मै हृष्टोऽदात्पारितोषिकम् // 62 // पं० कु० // शिलारत्नेन तेनाथ भूनाथो भुवनामृताम् / / वेदी सिंहासनाधारं सूत्रधारैरजीघटत् // 63 / / सद्यस्तानकरोच्छन्नमुच्छन्नासूनऽमूकधीः। निदेन्दहीत्यऽसंदेहं होतारमपि हव्यवाट् // | // 64 // अध्यास्य गगनस्वच्छरत्नवेदीस्थमासनम् / वर्णाश्रमाधिकारेषु व्यापिपत्ति विशाम्पतिः॥६५॥ आकाशस्थमिवाऽज्ञासी| दासनं तद्वसोनः। विविनक्ति विरश्चोऽपि सुप्रयुक्तं न कैतवम् // 66 / / दध्युः सदस्याः सत्यस्य प्रभावादेव देववत / व्योमस्थे | नरदेवोऽयं भद्रपीठेऽत्र तिष्ठति // 67 // तुष्टाः सत्यव्रतेनास्य प्रातिहार्य सुरा अपि / कुर्वन्तीति प्रसिद्ध्यापि शत्रवोऽविभयभशम // 8 // नृणां प्रसिद्धिर्जयति सत्या वा यदिवा मृषा / केनेक्षितो राक्षसोऽक्षे वसन् यक्षो वटेऽथवा // 69 / / अन्यदा नारदोऽभ्यागात् | सौहार्दादुपपर्वतम् / ऋग्वेदमुपदिशन्तं शिष्येभ्यस्तं स शुश्रुवान् // 70 // अजैर्यष्टव्यमित्यत्र बस्तैरित्युपदेशिनम् / नारदस्तमुपालेभे भ्रातर्धान्त इवासि किम् ? // 71 // त्रिवार्षिकाणां धान्यानामुप्तानामगरोहिणाम् / अजत्वमत्र व्याख्यातं गुरुभिर्यस्मरः कथम् ? // 72 / / ततश्च पर्वतोऽवोचद् ब्रीहीन्नेह स्वरूपतः / तातो व्याख्यदजान् किन्तु मेषांस्वं मा स्म विस्मरः // 73 // अजो मेपः स्तभो बस्त | इत्युचे च निघण्टुषु / घण्टापथेऽपि देवानांप्रिय तत् तेत्र भ्रमः कथम् ? // 74 // नारदोऽपि ससंरंभः पर्वतं प्रत्यभाषत / शब्दानामुभयी वृत्तिाणी मुख्या च कथ्यते // 75 / / अजयष्टव्यमित्यत्र गौणीमेवाध्वदद् गुरुः। खं तां मुख्यामिव व्याख्यनाऽऽख्यासि // 135 //