________________ श्रीअमम // 104 // पौरमंत्रिनृपान्वितः॥४२॥ प्राणसीत्पैतृके सिंहासने तमुपवेश्य सः। तस्याऽभिनवसाम्राज्यं पटहैरुदघोषयत् // 43 // तनिदानं पुरे| | तस्मिन् महोत्सवमकारयत् / आनचुरेनं सामन्तादयोऽपि नवभूभुजम् // 44 // श्रीमान् शुकमहाराजस्तदिन्द्रपदसंनिभम् / अहिकैरर्पितं पुण्यैर्लब्ध्वा साम्राज्यमूजितम् // 45 // महर्द्धिबन्धुरां क्लुप्तहट्टशोभो रे पुरे / करिस्कन्धगतो राजपाटिकामकरोदऽसौ // 46 // जगाम चैत्यगेहेषु विभृत्या वसतिष्वपि / यथार्हमर्चयामास जिनान् गुरुजनानऽपि // 47 // अमारिपटहानाऽऽत्मराज्यसीमन्यवीवदत् / एवं प्रभावयामास नैकध्यं जिनशासनम् // 48 // च० क०॥ कीर्तिराज्ञा च राज्ञोऽस्याऽव्याहता व्यानशे दिशः / अस्तोकः कौतुकाल्लोकस्तं दूरात् द्रष्टुमागमत् // 49 / / प्रतिहारस्ततः कीरनृपेण ससुतं धनम् / आह्वातुं प्रहितो गत्वा तदादेशमचीकथत् // 50 // किमाकार्यः। सपुत्रोऽहमकाण्डे नवभूभुजा / इत्याकुलः सबकुलः श्रेष्ठी राजकुलं ययौ // 51 // वत्स ! नासौ स नासिक्यः ? सोऽतीतस्तात ! निश्चि-| तम् / काणः खञ्जश्च पुत्राऽयं पितर्भूः सदृशे ता // 52 // जात ! दैवगतिश्चित्रा वप्तर्धान्तोऽसि सर्वथा / दृष्ट्वा दरात शुकं साकं पुत्रेणैवं वितर्कवान् // 53 // साश्रुः शुकस्मृतेर्दत्वोपायनं प्रणतो धनः / दत्तासनगतः कीरनृपेणाभाषि सादरम् // 54 // त्रि०वि०॥ कञ्चित्सपरिवारस्य कल्याणिन् ! कुशलं तव / आस्तां वेदमकस्मात्खमुदथुरसि किं ? वद // 55 // सदेव देव ! त्वत्पादप्रसादात् कुशलं मम / इत्यु | क्वोदश्रुताहेतुमाख्यत् शुककथां धनः // 56 // ऊचे शुकोऽपि मां विद्धि कीरं नासिक्यसंज्ञितम् / एहि मे देहि निविडाश्लपमुत्कण्ठि| तस्य तत् // 57 // बकुल ! ख कुलोस ! दिष्ट्या दृष्टश्चिरादसि / कच्चित् कुशलिनी भ्रातृजाया धनवती मम // 58 // ममोपकारिणी रत्नवती कल्याणिनी स्नुषा / राज्यलक्ष्मीर्मया यस्याः प्रसादादनुभूयते // 59 // आकर्येदं सुधाकुण्डनिमग्न इव सांगजः / उपसृत्य धनो वेगात् शुकांही परिषष्वजे // 60 // ऊचे दिष्ट्या दृष्टोऽसि देव ! जीवन् मयाधुना / लब्धराज्यपदश्चेति प्रमोदस्यापि चूलिका | जिनचरित्रम् तोसलिना स्थापितो राज्ये शुकः, प्रदत्तं बकुलस्य नगरश्रेष्ठिपदम् सर्ग-३ // 104 //