________________ मुक्तावली जह बड़पन वांछे मांगजे तो न कांई, लहु पण जिण होवे केम कीजे ति कार्ड। Clअथ जिम लघु थह सोमे वीरथी दान लाधुं, हरि बलि-नृप आगे वामना रूप कीधुं // 1 // ॥९१॥दा हे भ्रातः ! यदि महत्वममिलपसि तर्हि कदापि किमपि कश्चन मा याचस्व / यदाह-गुणशतमप्यर्थिता हरति / याच कस्य तूलादप्यधिका लघुता जायते / पुरा किल सोमिलनामा द्विजातिमहावीरप्रभोलघूभवन दानमाप्तवान् / सर्वशक्तिमान् विष्णुरपि बले. सकाशाद्वामनीमय दानमग्रहीत // 10 // __ अथ ५-निर्धनता-विषयेधन विण निज-बंध तेहने दर ठंडे, धन विण गृह-भार्या भर्तसेवा न मंडे / निरजल सर जेवो देह निर्जीव जेवो, निरधन पण तेवो लोकमें ते गणेवो // 12 // यथा-जगति धनहीनजनं स्वबन्धुरपि नाद्रियते, भार्या तिरस्करोति, त्यक्तमर्यादीभूय कदाचिदपि स्वपति न सेवते, भृशं | | मर्स्यति, शुष्कं सर इव निर्धनो न शोभते / यथा जीवं विना देहो न भांति तथा धनं विना प्राणी कुत्रापि कथमपि शोभा | नैव पत्ते कापि न च गण्यते // 12 // अन्यच्च सरवर जिम सोहे नीर पूरे भराये, धन करि नर सोहे तेम ते जे उपाये। धन करिय सुहंतो माघ जे जाण इतो, धन विण पग सूझी तेह दीठो मरंतो // 13 // // 91 //