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सद्धर्म
श्रीविंशति
लस्सवि तस्सत्तिजोगओ तह असकिरिया ॥ १८॥ जुन्बणजुत्तस्स उ भोगरागओ सा न किंची जह चेव । एमेव धम्मरागा सकिरिया है काप्रकरणे धम्मजूणोवि ॥ १९ ॥ इय बीजाइकमेणं जायइ जीवाण सुद्धधम्मुत्ति । जह चंदणस्स गंधो तह एसो तत्तओ चेव ॥२०॥12
& विशिका ६ इति बीजादिविंशिका पंचमी ॥५॥
एसो पुण सम्मत्तं सुहायपरिणामरूवमेवं च । अप्पुव्वकरणसझं चरमुक्कोसदुिईखवणे ॥२॥ कम्माणि अट्ठ नाणावरणिज्जाईणि है हुँति जीवस्स । तेसिं च ठिई भणिया उक्कोसेणेह समयम्मि ॥२॥ आइल्लाणं तिण्डं चरिमस्स य तीसकोडकोडीओ । होइ ठिई है।
उकोसा अयराण सतिकडा चेव । ३॥ सयरिं तु चउत्थस्सा वीसं तह छट्ठसत्तमाणं च । तित्तीस सागराई पंचमगस्सावि विन्नया ४॥ ४ ॥ अट्ठण्हं पयडीणं उक्कोसठिईए वट्टमाणो उ । जीवो न लहइ एवं जेण किलिट्ठासओ भावो ॥५॥ सत्तण्हं पयडीण अभितरओ
उ कोडकोडीए । पाउणइ नवरमेयं अपुरकरणेण कोई तु ॥ ६॥ करणं अहापवत्तं अपुरमाणियट्टिमेव भव्वाणं । इयरेसिं पढमं चिय भण्णइ करणंति परिणामो ॥ ७ ॥ जा गठिं ता पढमं गठिं समइच्छओ भवे बीयं । अणियट्टी करणं पुण सम्मत्तपुरक्खडे जीवे | ॥ ८॥ इत्थ य परिणामो खलु जीवस्स सुहो य होइ विबेओ । किं मलकलंकमुकं कणगं भुवि झामलं होइ ? ॥९॥षयईय व कम्माण क्यिाणि वा विवागमसुहंति । अवरद्धेवि न कुप्पइ उवसमओ सव्वकालंपि ॥ १० ॥ नरविबुहेसरसुक्खं दुक्खं चिय | भावओ उ मन्नतो । संवेगओ न मुक्खं मुत्तूणं किंपि पत्थेई ॥ ११ ॥ दळूण पाणिनिवहं भीमे भवसागरम्मि दुक्खत्तं । अविसे
॥७ ॥ सओऽणुकंपं दुहावि सामथओ कुणइ ॥ १२ ॥ नारयतिरियनरामरभवेसु निव्वेयओ वसइ दुक्खं । अकयपरलोयमग्गो ममत्तविस
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